अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह का प्रमुख सेनापति था। उसका वास्तविक नाम अहमद खाँ था। उसका जन्म एक अफगान परिवार में हुआ था । कन्धार - विजय के बाद नादिरशाह अब्दाली ने प्रजा को बसने की आज्ञा दे दी थी। अहमद खाँ भी कन्धार में ही रहता था । नादिरशाह की मृत्यु के बाद अब्दालियों ने अहमद खाँ को अपना नेता मनोनीत किया और उसने अहमदशाह की उपाधि ले ली। कन्दहार में विरोधियों को शान्त कर अहमदशाह ने गजनी, काबुल और पेशावर पर अधिकार कर लिया और अपनी सेना और शक्ति को संगठित कर उसने भारत पर आक्रमण करने की योजना बनायी।
अहमदशाह अब्दाली ने आठ बार भारत पर आक्रमण किया। पहला आक्रमण 1743 में पंजाब पर किया । लाहौर और सरहिंद पर अधिकार करने में वह सफल रहा। परन्तु मुगल सेना के साथ युद्ध में पराजित होने के कारण अहमदशाह अब्दाली वापस लौट गया। अहमद शाह ने पराजय का बदला लेने के उद्देश्य से 1749 में दूसरी बार पंजाब पर आक्रमण किया। पंजाब का सूबेदार म्यून खाँ था। उसने अहमदशाह की सेना का सामना किया और मुगल सम्राट से सहायता की माँग की। समय पर सहायता नहीं मिलने के कारण म्यून खाँ ने प्रति वर्ष अहमदशाह को 14000 रूपये देना स्वीकार कर लिया। 1751 में तीसरी बार अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण भारत पर हुआ। इस बार मुगल सम्राट उसे लाहौर और मुल्तान देने पर राजी हो गया। अहमदशाह कश्मीर जीत कर स्वदेश लौट गया तथा म्यून खाँ को पंजाब का राज्यपाल नियुक्त कर 50 लाख रूपये प्रति वर्ष प्राप्त करने लगा।
1761 ई० में मराठों और अब्दाली के बीच पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ। अब्दाली के पास 60,000 सैनिक थे। सदाशिव राव के पास 45,000 सैनिक थे। युद्ध प्रारम्भ होने के पहले सदाशिव राव और जाट राजा सूरजमल के बीच युद्ध-नीति के प्रश्न पर मतभेद हो गया। जाट सेना ने मराठों का साथ छोड़ दिया। कुछ मराठा नेता भी सदाशिव राव से सहमत नहीं थे। अतः युद्ध में उनका उत्साह भी ठंढा पड़ गया।
प्रतिकूल परिस्थिति के बावजूद मराठों ने 14 जनवरी को युद्ध प्रारंभ किया। विजय अब्दाली की हुई और मराठों की पराजय के साथ उनकी शक्ति नष्ट हो गयी।
पानीपत की तीसरी लड़ाई के परिणाम मराठों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। युद्ध में हजारों की संख्या में मराठा सैनिक मारे गये। इस युद्ध से मराठों की शक्ति क्षीण हो गयी और उनके साम्राज्य कायम करने का स्वप्न भंग हो गया। सरदेशाई के अनुसार इस युद्ध का कोई निर्णायक राजनीतिक परिणाम नहीं निकला। परन्तु यह विचार तथ्यपूर्ण नहीं है। पानीपत के बाद मराठों में द्वारा पंजाब पर कोई आक्रमण नहीं किया गया। उनकी अजेय शक्ति पर प्रश्न चिन्ह लग गया। मराठों की प्रतिष्ठा नष्ट हो गयी। उनकी मित्रता भरोसे के लायक नहीं रही। युद्ध में मराठों के अनेक महारथी मारे गये। योग्य सेनापतियों की मृत्यु हो जाने के बाद पेशवा परिवार स्वयं षड्यंत्र के जाल में उलझ गया। मराठों को यदि पानीपत के मैदान में विजयश्री मिलती तो भारत में अंगरेजों के द्वारा साम्राज्य स्थापित करना कठिन हो जाता। अंगरेजों का विरोध करने में मराठा ही सक्षम हो सकते थे। अतः इस दृष्टिकोण से पानीपत की तृतीय लड़ाई का परिणाम भारतीय राजनीति में एक मोड़ लानेवाली घटना की तरह आँका जा सकता है।