लोक हितकारी राज्य से साधारणतः हम यही समझते हैं कि लोक हित करने वाला राज्य लोकहितकारी राज्य कहलाता है।
किन्तु इतने ही से लोकहितकारी राज्य का वास्तविक स्वरूप हमारी समझ में नहीं आता। लोकहितकारी राज्य के स्वरूप को भली-भाँति समझने के लिए हमें लोक हित का राजनीति शास्त्र से सम्बन्धित क्या अर्थ है, लोक हित क्या तथा किसका होना चाहिए।
अथवा उसका सम्पादन किस प्रकार तथा कैसी राजनीतिक संस्थाओं द्वारा किया जा सकता है इन तथा ऐसे ही कुछ प्रश्नों के उत्तरों पर विचार करना होगा।
राजनीतिशास्त्र में जब लोक हित की बात करते हैं तो उसका तात्पर्य साधारणतः लगाया जाने वाला वैयक्तिक हित नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति के हित पृथक-पृथक होते हैं। अतः सब की साधना लोक - हितकारी राज्य पृथक-पृथक करे, ऐसा सम्भव नहीं है।
फिर व्यक्तियों के हित अनेक प्रकार के होते हैं और लोक-हितकारी राज्य उन सब प्रकार के वैयक्तिक हितों का सम्पादन करे, यह भी असम्भव है।
लोक हितकारी राज्य के प्रसंग में लोक हित से हमारा तात्पर्य राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से व्यक्ति की अवसर की असमानता को दूर कर उसकी साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करना होता है।
इस व्यवस्था का उद्देश्य किसी समुदाय विशेष, वर्ग- विशेष अथवा किसी अंग विशेष का हित साधन नहीं होता, अपितु उसका उद्देश्य जनता के सभी अंगों के कुछ आवश्यक हितों की साधना करना होता है।
टी डब्ल्यू० कैन्ट ने इस सम्बन्ध में कहा है कि "वह राज्य लोक हितकारी राज्य होता है जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज सेवाओं की व्यवस्था करता है।
इन समाज सेवाओं के अनेक रूप होते हैं। इनके अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी तथा वृद्धावस्था पेंशन आदि की व्यवस्था होती है।
इसका मुख्य उद्देश्य नागरिक को सभी प्रकार की सुरक्षा प्रदान करना होता है।"
डा० अब्राहम के अनुसार "वह समाज जहाँ राज्य की शक्ति का प्रयोग निश्चयपूर्वक साधारण आर्थिक व्यवस्था को इस प्रकार परिवर्तित करने के लिये किया जाता है कि सम्पत्ति का अधिक से अधिक उचित वितरण हो सके, लोक हितकारी राज्य कहलाता है।
लोक हितकारी राज्य से सम्बन्धित उपर्युक्त विचारों में मनुष्यों के हितों के आर्थिक पहलू पर भी अधिक बल दिया जाता है।
क्योंकि आर्थिक हितों की साधना होने से अन्य हितों की साधना स्वयं सुलभ हो जाती है किन्तु इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि यद्यपि आर्थिक हित-साधना से ही मानवें कल्याण पूर्ण नहीं हो जाता।
वस्तुतः लोक-हित से हमारा तात्पर्य मनुष्य के सर्वांगीण हित साधन से होता है जिसमें उसके सामाजिक, नैतिक, आर्थिक तथा बौद्धिक सभी प्रकार के हितों की साधना आं जाती है।
तथा जिनकी प्राप्ति केवल राजकीय प्रयत्नों द्वारा ही नहीं हो सकती, अपितु जिसके लिए मनुष्यों में सामाजिकता की उस भावना का उत्पन्न होना भी आवश्यक होता है।
जिससे लोग एक-दूसरे के लिए कार्य करना अपना कर्त्तव्य समझने लगते हैं।
लोक-हितकारी राज्य के क्या-क्या मुख्य उद्देश्य हैं? इस सम्बन्ध में उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं —
लोक हितकारी राज्य को सर्वप्रथम व्यक्ति की सुरक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए क्योंकि आर्थिक हित-साधना के बिना राजनैतिक हित साधना का कोई मूल्य नहीं होता।
शासन का स्वरूप कोई भी हो, राजनैतिक शक्ति अधिकतर उन लोगों में केन्द्रित हो जाती है जो आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली होते हैं।
अतः राजनैतिक शक्ति को जन-साधारण में निहित रखने के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने सभी व्यक्तियों के लिए एक न्यूनतम आर्थिक स्तर की प्राप्ति की व्यवस्था करें।
उपर्युक्त आवश्यकताओं को न्यूनतम मानने का तात्पर्य यह है कि ऐसी आवश्यकताओं की पूर्ति राज्य के प्रत्येक व्यक्ति के लिए होनी चाहिए, क्योंकि इनके बिना मनुष्य का जीवन ही निरर्थक होता है।
लोकहितकारी राज्य में किसी व्यक्ति के लिए आर्थिक साधनों की अधिकता होने के पूर्व सब व्यक्तियों के लिए उनकी पर्याप्तता होना अनिवार्य है।
इसके पश्चात् लोकहितकारी राज्य के लिए यह आवश्यक है कि वह व्यक्ति की राजनैतिक सुरक्षा की व्यवस्था करे।
जिससे व्यक्ति स्वयं राज्य के लोकहितकारी कार्यों में सक्रिय भाग लें और सामान्य हित में अपनी व्यक्तिगत योग्यता द्वारा वृद्धि करने में सहायक हो।
इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यक्ति को चाहिए कि अपना आचरण सामान्य इच्छा के अनुकूल रखे और अपने को उसके अधीन माने।
तथापि उसे इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह उस सामान्य इच्छा के निर्माण में विचार अभिव्यक्ति प्रचार तथा वैधानिक विरोध द्वारा अपना सहयोग दे सकें।
यों तो जैसा पहले कहा गया है, लोकहित की साधना किसी फासिस्ट अथवा कम्युनिस्ट राज्य में और रूस अथवा गणतंत्रीय चीन जैसे साम्यवादी राज्यों में व्यापक लोकहित का सम्पादन भी हो रहा है।
तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वहाँ आर्थिक सुरक्षा की वेदी पर व्यक्ति को अपनी राजनैतिक उसके व्यक्तित्व के महत्त्व का व्यापक बलिदान करना पड़ता है।
रक्षा का जहाँ तक ईश्वर की सृष्टि को श्रेष्ठतम रचना - मानव की महत्ता का सम्बन्ध है लोकहितकारी प्रजातन्त्र निःसन्देह लोकहितकारी साम्यतन्त्र से उत्तम है।