वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के साथ-साथ आश्रम व्यवस्था भी भारतीय समाज का अंग बन गई थी।
मनुष्य की आयु को 100 वर्ष मानकर प्रत्येक आश्रम के लिए 25 वर्ष की समान अवस्था निश्चित की गई थी।
ये चार आश्रम इस प्रकार थे—
- ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष तक) : इस आश्रम में व्यक्ति अपने गुरु के आश्रम में रहकर, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्या ग्रहण करता था।
- गृहस्थाश्रम (25–50 वर्ष) : अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद व्यक्ति विवाह करके गृहस्थ धर्म का पालन करता था।
- वानप्रस्थ आश्रम (50–75 वर्ष) : इस आश्रम में व्यक्ति सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त होकर तथा जंगल में रहकर एकान्त स्थान में आत्म चिन्तन तथा जीवन की गूढ़ बातों पर ध्यान करता था।
- संन्यास आश्रम (75–100 वर्ष तक) : यह अन्तिम आश्रम था। इसमें व्यक्ति अपनी कुटी को छोड़कर संन्यासी बन जाता था और कठिन तप द्वारा मुक्ति मोक्ष की कामना करता था।