यह कृषि पद्धति संसार के घने बसे क्षेत्रों में प्रचलित है। यहाँ भूमि पर जनसंख्या का दबाव बहुत अधिक है, अतः प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता निम्न है।
खेत बिखरे और छोटे होते हैं, किसान साधारण तथा निर्धन होते हैं, पुराने औजार और मानव तथा पशु श्रम का अधिक प्रयोग होता है, नये मशीनों का प्रयोग कम होता है तथा पूंजी निवेश भी कम होता है।
रासायनिक खादों और सिंचाई के साधनों का इस्तेमाल कम होता है। मानसूनी वर्षा पर निर्भरता अधिक रहती है।
इसके बावजूद इस क्षेत्र में प्रति हेक्टर उत्पादन अधिक होता है। इसका कारण यह है कि यह खेती एक जीवन शैली बन गई है।
खेत किसानों का एक प्रकार का बगीचा होता है, जिसमें दिन-रात परिश्रम करके अधिकाधिक उत्पादन करते हैं और एक-एक इंच भूमि पर फसल उपजाते हैं।
यहाँ वर्ष में दो-तीन फसलें और एक फसल मौसम में कई फसलें उपजायी जाती हैं। फसलों में खाद्यान्न की प्रधानता रहती है; अन्य फसलें आवश्यकतानुसार उपजाई जाती हैं।
गहन निर्वाहन कृषि मानसून जलवायु वाले दक्षिणी एवं दक्षिणी पूर्वी एशिया में प्रचलित है।
इस क्षेत्र में अत्यधिक घनी जनसंख्या के कारण उत्पादन निर्वाहस्तर पर ही रहता है और बिक्री के लिए अवशेष बहुत कम बचता है। इसी कारण इसे निर्वाहन कृषि कहा जाता है।
जलवायु में प्रादेशिक भिन्नता के कारण गहन निर्वाहन कृषि मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं—
- चावल प्रधान गहन निर्वाहन कृषि
- चावल विहीन गहन निर्वाहन कृषि