विश्व की कुल जनसंख्या में आधी जनसंख्या महिलाओं की है। वे कार्यकारी घंटों में दो तिहाई का योगदान करती हैं, लेकिन विश्व आय का केवल दसवां हिस्सा प्राप्त कर पाती हैं और उन्हें विश्व संपत्ति में सौवें से भी कम हिस्सा प्राप्त है।
यद्यपि रोजगार में महिलाओं की संख्या में वृद्धि हो रही है लेकिन उन्हें कम वेतन मिल रहा है और उनके कार्य की परिस्थितियाँ असंतोषजनक हैं। विश्व के 550 लाख कार्यरत गरीबों में 80 प्रतिशत महिलाएँ हैं।
महिलाएँ अधिकांशतः पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करती हैं। वे बच्चों और बड़ों की देखभाल करती हैं, पारिवारिक भूमि के कामों में या व्यापार में सहयोग करती हैं, गांवों में पानी, ईंधन और चारा लाने में जीवन व्यतीत करती हैं। उनके ये कार्य निःशुल्क तथा अप्रत्यक्ष होते हैं, जीडीपी में इसकी गणना नहीं होती।
2001 की जनगणना के अनुसार भी महिलाओं की घरेलू कार्यों की गणना नहीं होती है। मारथा सी. नुसवाम के अनुसार महिलाएँ दिनभर दुहरे कार्यभार में व्यस्त रहती हैं। बच्चों व पति की देखभाल के कार्य में वे अपना समय और शक्ति लगाती हैं, सारा दिन शारीरिक रूप से थकने के बाद उनके पास खुद के लिये समय नहीं होता। यहां तक कि वे पौष्टिक भोजन, आर्थिक सुरक्षा व आराम से भी वंचित रहती हैं। उन्हें अपनी क्षमता के विकास के लिये दो विकल्पों पारिवारिक दायित्व तथा कैरियर निर्माण में से एक के चुनाव का अवसर नहीं मिलता। नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन भी स्वीकार करते हैं कि महिलाओं को घर से बाहर जो कार्य मिलते हैं वे निचले दर्जे के होते हैं, तथा उन्हें वेतन भी पुरुषों से कम मिलता है। ये उनकी सामाजिक हैसियत व हक को विपरीत रूप से प्रमाणित करते हैं।
कार्यकारी महिलाओं की बहुत छोटी-सी संख्या को सरकारी आंकड़ों में स्थान मिल पाता है, ज्यादातर महिलाएँ असंगठित क्षेत्रों जैसे- कृषि, पशुपालन के कार्यों में संलग्न रहती हैं। सच तो यह है कि सर्वेक्षणों के दौरान ये महिलाएँ अपने आपको घरेलू औरतें ही कहती हैं। हालांकि वे आमदनी के लिये 14 से 16 घंटे रोज काम करती हैं।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि 80 प्रतिशत महिलाएँ ही औद्योगिक क्षेत्रों में कार्य करती हैं। इसमें उच्च पदों पर उनकी उपस्थिति अभी भी नगण्य है।
कृषि तथा मजदूरी वाले क्षेत्रों में न्यूनतम मजदूरी लागू करने की कोई व्यवस्था नहीं है यहीं अधिकतर महिलाएँ कार्यरत हैं। भारत में एक भी ऐसा राज्य नहीं है जहाँ महिलाओं तथा पुरुषों को समान कार्य के लिये समान मजदूरी मिलती हो ।
संसद के द्वारा समय-समय पर नीति-निर्देशक सिद्धांतों के क्रियान्वयन के लिये कानून बनाए गए हैं। धारा-38 के अनुसार, राज्य का यह दायित्व है कि वह ऐसी व्यवस्था करे जिससे सभी को ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक' न्याय प्राप्त हो सके। धारा 39, 42 और 43 के अनुसार, राज्य ऐसी विधियाँ पारित करेगा जिससे सभी को समान कार्य के लिये समान वेतन, कार्य की औचित्यपूर्ण तथा मानवीय परिस्थितियाँ, मातृत्व अवकाश प्राप्त हो । कार्य परिस्थितियाँ ऐसी हों जिससे स्तरीय जीवन व्यतीत किया जा सके।