एक मुख्य मसला है भाषा व बोली का परन्तु भाषा और बोली में अन्तर कहा जाता है भाषा का व्याकरण होता है, बोली का नहीं। भाषा की लिपि होती है, बोली की नही। भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है जबकि बोली स्थानीय भाषा मानवींकृत व परिमार्जित होती है, बोली नहीं। जिसका प्रयोग साहित्य, पत्राचार, दफ्तरों, अदालतों आदि में हो वह भाषा और जो बोलचाल की इस्तेमाल हो वह बोली। भाषा में शुद्ध - अशुद्ध का प्रश्न उठता है, बोली में सब चलता है। वास्तव में इस तरह के सभी तर्क गलत हैं, समाज के लिए अत्यधिक हानिकारक हैं। भाषायी दृष्टि से भाषा व बोली में कोई अन्तर नहीं। दोनों का व्याकरण होता है। दोनों नियमबद्ध हैं किसको भाषा कहा जाय और किसको बोली यह एक सामाजिक व राजनैतिक प्रश्न हैं। सत्ताधारी व पैसे वाले लोग अकसर जो बोली बोलते हैं, वह भाषा कहलाने लगती है, उसी के व्याकरण व शब्दकोश लिखे जाते हैं उसी में साहित्य लिखा जाता है। स्कूलों में शिक्षा का माध्यम बनकर वही बोली मानवीकृत भाषा बन बैठती है उसी से मिलते-जुलते बातचीत करने के अन्य तरीके उस भाषा की बोलियाँ कहलाने लगती हैं। भाषा व समाज के इस रिश्ते को समझना आवश्यक है, जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार देखें तो भाषा और बोली में कोई अन्तर नहीं है। समाज में व्यक्ति अपने भावों का आदान-प्रदान करने, भाषा और बोली का प्रयोग करते हैं। समाज की दोनों पहलू भाषा और बोली होती है, भाषा और बोली में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इस प्रकार भाषा और बोली आपस में एक-दूसरे के पूरक हैं, कोई किसी से कम नहीं आँका जा सकता । बोली भाषा का एक सीमित रूप है।