लार्ड कर्जन के प्रशासन ने अन्तत: ‘‘फूट डालो और राज करो" की नीति पर चलते हुए सन् 1905 में बंगाल का विभाजन कर उसे दो प्रांतों में बाँट दिया, बंगाल और पूरे भारत में इसके विरूद्ध राष्ट्रवादी नेताओं में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। एक प्रकार से स्वदेशी आंदोलन बंगाल विभाजन के विरूद्ध जनाक्रोश का संगठित प्रयास था। स्वदेशी आंदोलन आरंभ से एक आर्थिक अवधारणा थी, जिसके अनुसार देश में विनिर्मित वस्तुओं का प्रयोग धन की निकासी को रोककर तथा देशी उद्योगों को बढ़ावा देकर देश के आर्थिक विकास में सहायक सिद्ध हो सकता है। बंगाल विभाजन के बाद स्वदेशी की अवधारणा का आयाम व्यापक हुआ तथा यह एक आर्थिक अवधारणा न रहकर भारतीयों के समग्र जीवन दर्शन का एक अंग बन गया। उसका अर्थ हो गया विदेशी शासन, विदेशी शिक्षा, विदेशी संस्कृति एवं विदेशी विचारधारा के स्थान पर स्वदेशी को अपनाना। राष्ट्रवादियों के अनुसार भारत के विकास एवं औद्योगिक तथा सामान्य आर्थिक उत्थान की प्राप्ति हेतु स्वदेशी एक सशक्त हथियार था। तिलक के अनुसार इसके कार्यान्वयन में भारत के मध्यमवर्गीय नागरिकों, जो विदेशी वस्तुओं के सबसे बड़े उपभोक्ता थे, से बहुत बहु त्याग की अपेक्षा थी।
स्वदेशी आंदोलन को एक जनांदोलन बनाने में बंगाल में रविन्द्र नाथ ठाकुर, अरविन्द घाय विपिण चन्द्र पाल, महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, पंजाब में लाला लाजपत राय की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण रही। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1906) में स्वदेशी को स्वीकार किया गया। राष्ट्रवादियों ने इसे जन-जन तक पहुँचाने के लिए प्रेस, जनसभाओं, धरनों का सहारा लिया। तिलक ने बंबई प्रांत में 'केसरी' तथा 'मराठा' और बंगाल में 'संध्या', 'वंदेमातरम्' और 'युगान्तर' समाचार पत्रों ने स्वदेशी आंदोलन के बारे में लोगों को शिक्षित किया। सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए दमनकारी नीति का सहारा लिया। लेकिन धीरे-धीरे यह आंदालन सार भारत में फैल गया। बंगाल में छात्रों ने विदेशी वस्तुएँ बेचने वाली दुकानों पर धरना दिया। बाद में इन धरनों में महिलाएँ भी शामिल हुई। इस आंदोलन की सर्वाधिक सफलता भारत के विभिन्न भागां में सूती मिलों, कताई एवं बुनाई मिलों, साबुन एवं माचिस के कारखानों की स्थापना के रूप में प्राप्त हुई।