भाषा का प्रारम्भ व्यक्ति से ही होता है, क्योंकि व्यक्ति ही सर्वप्रथम वक्ता होता है और शेष समाज श्रोता, किन्तु यह भी सच है कि व्यक्ति का भाषा-अर्जन समाज से ही होता है।
समाज का अंग होने के कारण भाषा के सामाजिक रूप से निर्माण में वह सहयोग भी करता है। व्यक्ति और समाज के बीच भाषा के आदान-प्रदान की क्रिया शाश्वत चलती रहती है।
भाषा का वास्तविक उपयोग समाज करता है। भाषा को सुनने के लिए समाज की आवश्यकता होती है क्योंकि बिना श्रोता का क्या महत्व!
भाषा जोड़ती भी है और तोड़ती भी है-मजहब की तरह। आजादी के समय 'दो- देश' का मजहबी फार्मूला लगाकर शेष को दो भागों में बाँट दिया गया- भारत और पाकिस्तान ।
मगर चौबीस साल बाद उर्दू-बंगला भाषा को झगड़ा बनाकर पाकिस्तान को भी दो टुकड़ों में बाँट दिया गया-पाकिस्तान और बांग्लादेश । मजहब की तरह, क्या भाषा इंसान की पहचान बनती है ?
हाँ । इस प्रकार से भाषा, समाज एवं राजनीति एक त्रिकोण की तरह हैं जो एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं