शिक्षा का सरोकार एक सार्थक व उत्पादक जीवन की तैयारी से होता है और मूल्यांकन आलोचनात्मक प्रतिपुष्टि देने का तरीका होना चाहिए। यह प्रतिपुष्टि इस बात की होती है कि हम ऐसी शिक्षा लाभ करने में किस हद तक सफल या प्राप्त कर पाए।
इस परिक्षेप्य में देखें तो वर्तमान में चल रही मूल्यांकन की प्रक्रियाएँ जो केवल कुछ ही योग्यता को मापती है और आकलित करती है। बिल्कुल ही अपर्याप्त करती है और शिक्षा के उद्देश्यों की ओर प्रगति की संपूर्ण तस्वीर नहीं खींचती है।
लेकिन मूल्यांकन की यह सीमित प्रयोजन भी अकादमिक और शैक्षिक विकास पर प्रतिपुष्टि देने वाला तभी बन सकता है जब शिक्षक पढ़ाने से पहले ही न केवल आकलन की तरीकों की तैयारी करे बल्कि मूल्यांकन के मानकों और उसके लिए प्रयुक्त होने वाले औजारों की भी तैयारी करे।
विद्यार्थियों की उपलब्धि की गुणवत्ता की जाँच के अलावा एक अध्यापक को विभिन्न विषयों में उनकी उपलब्धि की जानकारी एकत्र कर, उसका विश्लेषण कर और उसकी व्याख्या करनी होगी तभी अध्यापक भिन्न क्षेत्रों में विद्यार्थियों के अधिगम की सीमा की एक समझ बना पाएँगे ।
आकलन का प्रयोजन निश्चय ही सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं एवं सामग्री का सुधार करना है और उन लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना है जो स्कूल के विभिन्न चरणों के लिए तय किए गए हैं।
यह पुनर्विचार व सुधार इस आधार पर किया जा सकता है कि शिक्षार्थियों की क्षमता किस हद तक विकसित हुई। यह कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यहाँ इस आकलन का मतलब विद्यार्थियों का नियमित परीक्षण कतई नहीं है बल्कि, दैनिक गतिविधियों और अभ्यास के उपयोग से अधिगम का बहुत ही अच्छा आकलन हो जाता है I