अति प्राचीन काल से भारतवर्ष में विभिन्न देवी-देवताओं की अराधना होती चली आयी है। दुर्गापूजा महोत्सव या दशहरा भारत में अत्यंत धूम-धाम से मनाया जाता है। औपचारिक रूप से यह उत्सव आश्विन मास की दूसरी प्रतिपदा से दशमी तक मनाया जाता है। प्रतिपदा से नवमी तक जिन 9 दुर्गाओं की पूजा होती है उनके नाम शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूषमाण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायिनि, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री है। ये सभी महाशक्ति दुर्गा के नौ
आश्विन मास में काले कजरारे बादल शरद के आगमन का संदेश लेकर आते है और सर्वत्र स्वच्छता के दर्शन होने लगते हैं। ऐसे अवसर पर माँ दुर्गा की रंग-विरंगी भव्य-मूर्तियां बनाई जाती है। महिषासुर की छाती में बरछा धसाए हुए एक पैर महिषासुर के कन्धे पर और दूसरा पैर सिंह की पीठ पर रखे हुए उनका भव्य रूप भक्तजनो के लिए आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। उनके मस्तक पर बिखरी हुई केश- राशि, उनका निर्भय मुख, उनकी कुन्द पुष्प सी आभा, उनके 10 हाथ देवी के उपासकों के हेतु कल्याण का केन्द्र है। उनके दाएं भाग में लक्ष्मी और बाएं भाग में सरस्वती विराजित है।
भारत के विभिन्न भागों में दुर्गा का पूजन विभिन्न ढंग से होता है। राजस्थान में दुर्गापूजा के दिन शास्त्रास्त्र पूजन भी होता है। गुजरात में पूजन के साथ नृत्य का आयोजन किया जाता है। महाराष्ट्र में दुर्गापूजन के साथ ही दीपोत्सव भी मनाया जाता है। मैसूर, कुल्लू की घाटियों में दुर्गा पूजा अत्यंत भव्यता से की जाती है और मेलों का आयोजन किया जाता हैं। बनारस से पंजाब तक इस अवसर पर भगवान राम के जीवन से संबंधित तरह-तरह की लीलाओं का आयोजन किया जाता है और उनके दानव-सहारक एवं पापनाशक रूप को विभिन्न लीलाओं के द्वारा चित्रित किया जाता हैं ही घरों में देवी की मूर्ति की स्थापना भी की जाती है और देवी की विधि विध ान से पूजन किया जाता है।
माँ दुर्गा शक्ति की प्रतीक है। वह कष्टों को हरने वाली और पापों का नाश करने वाली है। महामोह, अविधा और अज्ञान के बादलों को छिन्न-भिन्न करके वह विद्या और ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाली है। शत्रुओं से पराजित राजा और शत्रुभय से निष्कासित समाधि वैश्य ने इसी देवी की आराधना करके ही मोक्ष की प्राप्ति की थी।