वर्षा में प्राणी आनन्द से फूले नहीं समाते । प्रकृति के विस्तृत आँचल में हरिण छलांग भरते दिखाई पड़ते हैं तो पक्षीगण अपने कलरव से वर्षा ऋतु की उदारता के गीत गाते हैं। रंग-विरंगे पक्षी तालाबों में स्थान पाकर आनन्द से चहकते हैं। उनके झुलसे हुए शरीर में प्रफुल्लता का संचार हो जाता है। इसी रमणीय घड़ी में वे आकाश के मध्य खुली हवा में चक्कर काटते हैं और इसी में अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं। सभी जीव-जन्तु आनन्द का अनुभव करते हैं और यत्र-तत्र विहार करते हैं। वे समझते हैं कि वर्षा की कृपा से कुछ ही दिनों में पृथ्वी तृणाच्छादित हो जाएगी। इसी आशा में वे हर्षोन्मत्त होकर नाचने और किल्लोल करने लगते हैं। पृथ्वी पर वीरबहूटियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो पृथ्वी अपने अनुराग पग-पग पर बिखेर रही है। अगणित जीव पृथ्वी के गर्भ से निकल स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण करते हैं।
वर्षा होते ही प्रकृति लहलहा उठती है। वृक्ष, गुल्मों, लताओं में नव जीवन का संचार हो जाता है। जलवृष्टि से उनमें हरियाली आ जाती है और कोमल कोपलें निकलने लगती हैं। नये-नये अंकुर निकल-निकल कर वर्षा के प्रति अपना लगाव प्रकट करते हैं। जिस समय हवा चलती है उसके झोकों से कम्पायमान होकर लताएँ अत्यन्त सुन्दर लगती हैं। कोमल पल्लवों पर हीरे की कणियों के सदृश बूँदें स्थिर हो जाती हैं और हवा के झोकों से पृथ्वी पर गिर जाती हैं। मेघों द्वारा स्नान कराए हुए वृक्ष अपने वैभव में दृष्टिगोचर होते हैं। उसके जीवन की उमंग पत्ते-पत्ते पर देखी जा सकती है।
वर्षा - विहार अत्यन्त आनन्ददायक है। जलवृष्टि होने के पश्चात प्रकृति का दृश्य चित्ताकर्षक बन जाता है। तालाबों में मेढ़क 'टर्र-टर्र' का राग अलापते हैं, झिल्ली की झंकार कर्ण-कुहरों को छेदती सी ज्ञात होती है, अन्य पक्षियों का मधुर स्वर हृदय में स्निग्ध भाव जागृत करता है। वन्य पशु जंगल में हरी घास चरते हुए दिखाई पड़ते हैं। उनके पुलकित चित्त और उनकी प्रसन्नता उन्हें देखकर ही समझी जा सकती है।
पर्वतों का दृश्य वर्षा में दर्शनीय बन जाता है। किसी पर्वतमाला के उच्च श्रृंग पर चढ़ जाइए और तब पृथ्वी-तल की ओर दृष्टिपात कीजिए। निर्झरों की कलकल ध्वनि और प्रपातों का वेग-सम्पन्न जल-प्रवाह अत्यन्त सुखकर प्रतीत होता है। जलवृष्टि होने पर कुछ ही दिनों में प्रकृति भानुमति का पिटारा खोल देती है और विविध प्रकार की वनस्पतियाँ पर्वत को आच्छादित कर लेती हैं। सहृदयों के लिए यह दृश्य बड़ा मनोहारी होता है।
वर्षा होते ही प्रकृति का पुरोहित किसान अपने कन्धे पर हल रखकर खेतों की ओर चल देता है। गाँव में जिधर देखिए, किसान अपने बैलों के साथ खेत में जुटा हुआ है। कुटुम्बीजन उसका हाथ बँटाते हैं और वह स्वयं भी दम नहीं लेता। उसे तो शीघ्रातिशीघ्र बीज डाल देना है, अन्यथा धरती माता रूठ जायेंगी तो उसका किया-कराया मिट्टी हो जायेगा। एक दिन भी पिछड़ जाना उसके लिए असह्य है, क्योंकि खेती ही उसके जीवन का मूल आधार है। 'समय चूकि पुनि का पछताने' वाली कहावत तो उसी पर है। भारतीय किसानों की स्फूर्ति वर्षा होने के पश्चात भलीभाँति देखी जा सकती है। प्राणी मात्र का जीवन-धन वर्षा है। जलवृष्टि होते ही पृथ्वी पर हलचल मच जाती है। कृषक अपने हल-बैल के साथ खेतों में दिखाई पड़ते हैं और नाना भाँति के जीव-जन्तु अपनी गति तथा स्वर से मनुष्यों को मुग्ध कर देते हैं।