यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारतवर्ष ऋषि-मुनियों और साधु-संतों का देश रहा है। इसे जगत गुरू की संज्ञा मिल चुकी है। कारण कि इस देश में एक से बढ़कर एक संत, गुरु, विद्वान और महान पुरूष उत्पन्न हो चुके हैं। वैसे में कवियों की भी लम्बी सूची है, उनमें मेरे सबसे प्रिय कवि हैं "कबीर दास'। हिन्दी के सभी संत कवि चौरासी सिद्धों और नव नाथों के अनुयायी हैं। कबीर दास वैसे ही एक संत कवि हैं जिन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदी ने "वाणी डिक्टेटर" कहा है जिनकी सारी रचनाएँ सरस, सुन्दर, प्रेरणादायी एवं हृदयग्राही है।
वाणी के अक्खड़ और व्यक्तित्व के फक्कड़ कबीर का जन्म संवत् 1455 में एक कुँआरी ब्राह्मण कन्या की गोद में हुआ। लोक-लाज के भय से पिटारा में बंद कर उन्हें वाराणसी शहर के समीप लहरतारा तालाब के पास छोड़ दिया गया। जहाँ संतान विहीन जुलाहा दम्पति नीरू और नीमा को वे मिले जिसके पास उनका पालन-पोषण हुआ। वे पढ़े-लिखे नहीं थे, क्योंकि उन्होंने स्वयं ही कहा है कि
मसि कागज छूयो नहि कल गहयो नहि हाथ। उनकी रचनाओं के आधार-मुख्य रूपा समाज में फैली हुई अंधविश्वास तथा बाह्य आडम्बर पर कुठाराघाती इनकी रचना का इन्होंने अंधविश्वासी हिन्दुओं को यह हा है किपाहन पूजे हरि मिले तो पूर्जु पहार।
बुराइयों और आधार रहा है।
ताते ये चक्कि भलि जो पी खाए संसार।। वहीं मुसलमान से भी कहा ।
कंकड़ पाथर चुनिके मस्जिलियो बनाए
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बी भयो खुदाये।। कबीर निर्गुण भक्ति ज्ञानमार्गी कवि थे उन्हें क ईश्वर में विश्वास था इनकी अनेक प्रकार की रचनाएँ हैं जैसे साखी, शब्दी, णी, उलटबाँसी, निर्वाण के पद आदि। इन रचनाओं के माध्यम से व्यक्त विचारों ग्यह प्रतीत होता है कि वे भक्त और संत तो थे ही प्रबल समाज सुधारक भी थे। राचार और शुद्धाचरण की शिक्षा इनका मूल आधार रहा है। ऐसी वाणी बोलिए मन का पा खोई।
औरन को सितल करें आपहु तिल होई।। इनकी रचनाओं में ब्रह्म की सत्ता की स्वीकाक्त है तो गुरु की महत्ता भी दिखाई पड़ती है। लेकिन ब्रह्मणत्व को अस्वीकार यिा है। गोविन्द दोउ खडै काकै रगूं पाय।
गुरु बलिहारी गुरु आपनै जिन गोविन्द देयो बताय।।