भूमिका
शहर उस स्थान को कहते हैं जहाँ सरकारी अर्द्धसरकारी कार्यालय, व्यापारिक केंद्र, शैक्षिक संस्थान, अस्पताल, रेलवे स्टेशन, बस अड्डा, बड़े-बड़े होटल, मनोरंजनगृह तथा वैज्ञानिक साधनों के द्वारा सुखोपभोग आदि की सुविधाएँ प्राप्त हों।
शहर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विभिन्नताओं से युक्त मानव समुदाय का वास-स्थल होता है। यहाँ के जीवन में कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता और प्रतिस्पर्द्धा के गुण होते हैं।
शहर का जीवन वैज्ञानिक संस्कृति का जीवन होता है जिसमें तर्क और बुद्धि की प्रधानता होती है। हृदय को इसमें अपेक्षित स्थान प्राप्त नहीं होता।
शहरीकरण के कारण
वैज्ञानिक एवं औद्योगिक प्रगति के कारण आज शहरों की संख्या बढ़ रही है। किसी भी देश की प्रगति की पहचान वहाँ विकसित, स्थापित हो रहे शहरों आँकी जाती है।
विकास, निर्माण, शिक्षा, उद्योग एवं सेवाओं से शहरी लोग अपनी आजीविका अर्जित करते हैं।
भारतवर्ष आज तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है। बड़े गाँव भी अब शहर होते जा रहे हैं। शहरीकरण से सुख-सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ती है।
शहरीकरण के साथ-साथ औद्योगिकीकरण भी तेजी से होता है। धन एवं जीविका दोनों शहरीकरण के कारण उपलब्ध होते हैं।
शहरीकरण की विशेषताएँ
शहर में धर्म, भाषा, व्यवसाय और जीवन स्तर के आधार पर अत्यधिक विषमता है। शहर की सर्वप्रमुख विशेषता होती है इसकी आर्थिक केंद्रीयता।
यही कारण है कि लोग धन कमाने के लिए शहरों की ओर भागते हैं। देहातों में कहावत प्रचलित है – "या तो पढ़ाओ, नहीं तो शहर में बसाओ।” शहर में एक शिक्षित भी अपनी शिक्षा के अनुरूप कोई नौकरी पा सकता है और एक अशिक्षित भी।
शहरीकरण के दोष
शहरी जीवन पूर्णतः औपचारिक जीवन होता है। यह (शहरी जीवन) दिखावे का जीवन होता है।
इसमें व्यक्तिगत हितों की रक्षा सर्वोपरि होती है। इसमें सभी प्रकार की क्रियाओं का आधार व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिवादी धारणाएँ होती हैं।
उपसंहार
शहर का जीवन चकाचौंध और भौतिक ऐश्वर्य के पीछे पागल है। इसमें केवल 'मैं' की भावना मिलती है, 'हम' की नहीं।
स्वार्थ, छल-कपट, मक्कारी, हिंसा और झूठ- फरेब का बोलबाला शहरी जीवन की विशेषता है। शहर के लोग भीड़ में भी अकेले होते हैं और अपार धन में भी दरिद्र ।
जो दरिद्र हैं, उनका तो कुछ पूछना ही नहीं! वे तो पेट की भूख मिटाने शहरों में आते हैं और 'काल' की भूख मिटाने का साधन बनते हैं।