पहले राजनीति का अर्थ था- राज्य विशेष की वह नीति जिससे आन्तरिक प्रशासन चलता था और दूसरे राज्यों के साथ उसके सम्बन्ध निर्धारित होते थे। मगर आज अपने देश या समाज में राजनीति का अर्थ बदल गया है। अब राजनीति का अर्थ है पार्टी विशेष का पक्षधर होकर सत्ता के सोपान तक पहुँचने का प्रयत्न। स्पष्टतः अब राजनीति का अर्थ हो गया है विधायक, सांसद बनने के लिए चुनाव लड़ना, पार्टी विशेष का सदस्य बनना और सत्ता के लिए उठा-पटक करना। को राजनीति से जुड़ना चाहिए या नहीं इस पर स्पष्टतः दो प्रकार के विचार प्रचलित हैं। एक विचार के अनुसार छात्रों को अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए, राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए। राज्योति में भाग लेने से उनका समय बर्बाद होता है और इसका असर उनकी शिक्षा पर पड़ता है। यह उन बुद्धिजीवियों का है जो छात्रों का हित उनके अध्ययन में देखते हैं। अथवा उन छात्रों का है जो रिमरिस्त होते हैं। वे राजनीति के पचड़े से दूर रहकर पूरा समय पढ़ाई में देना चाहते हैं ताकि केप कर योग्य बनें और किसी प्रतियोगिता में सफल होकर आजीविका प्राप्त कर सकें।
इसके विपरीत दूसरा मत उन महत्वाकांक्षी छात्रों का है जो "पढ़ाई और लड़ाई साथ-साथ" का नारा देकर सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ना चाहते हैं। यही मत उन नेताओं का है जोका उपयोग कर सत्ता पाने के अभ्यासी हो गये हैं। वस्तुतः ऐसा छात्र जो पढ़ने में भी तेज हो और राजनीति भी करे दुर्लभ होता है। प्रायः पढ़ाई में पिछड़े रहने या पढ़ाई के बहाने कालेजों से जुड़े रहनेवाले छात्र ही राजनीति का सहारा लेते हैं।
इन दोनों छोरों के बीच सत्यता क्या है इस पर विचार करने के पूर्व छात्र और राजनीति की पृष्ठभूमि जान लेना आवश्यक है। किसी भी देश में पढ़े-लिखे लोग ही राजनीति, समाज-सुधार, शिक्षा आदि के क्षेत्र में क़ान्ति करते हैं। अपने देश में भी राममोहन राय, तिलक, गोखले, गाँधी आदि सभी नेता शिक्षा पाने के बाद ही समाज सेवा या राजनीति में आये। गाँधी जी ने देश की आजादी की लड़ाई में साथ देने के लिए नौजवानों का आह्वान किया। उनकी आवाज उन नौजवानों ने अधिक सुनी जो स्कूलों-कालेजों में पढ़ रहे थे। वे अपना अध्ययन छोड़कर स्वाधीनता संग्राम में सम्मिलित हो गये। उन नौजवान छात्रों में से कुछ अच्छे नेता के रूप में भी उभरे, आजादी मिलने के बाद प्रजातंत्र भारत में हुए चुनावों में भाग लेकर वे विधायक सांसद हो गये, मंत्री बन गये। यही परम्परा आगे बढ़ती रही। धीरे-धीरे यह सोच विकसित हुई कि यदि हम लड़ाई लड़कर अंग्रेजों को भगा सकते हैं तो अपनी माँगे भी मनवा सकते हैं और यदि राजनीतिक सक्रियता बनाये रखेंगे तो सत्ता के सोपानों पर भी जा सकेंगे। इस तरह आजादी से पूर्व जो चेतना कर्त्तव्य के रूप में उभरी थी वह आजादी के बाद अधिकार की चेतना बन गयी। चुनाव जीतने के लिए नेताओं द्वारा छात्रों का उपयोग होने लगा तो छात्र भी अपने लाभ-लोभ के लिए नेताओं द्वारा छात्रों का उपयोग होने लगा तो छात्र भी अपने लाभ-लोभ के लिए नेताओं को ऐंठने लगे। इस तरह नेताओं ने मौके-बेमौके छात्रों का आह्वान कर उन्हें राजनीति का स्वाद चखाया तो धीरे-धीरे छात्रों में भी राजनीति की संस्कृति विकसित हो गयी। आन्दोलन, घेराव, तोड़-फोड़ और संख्या बल के आधार पर वे कमजोर, सत्तालोलुप तथा भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं, मंत्रियों एवं अधिकारियों को दबाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगे। छात्रों को जिगर के टुकड़े कहकर बिहार में महामाया प्रसाद सिंह ने बिगाड़ा तो जयप्रकाश जी ने अपनी संपूर्ण क्रान्ति का सूत्रधार छात्रों को बना दिया। सम्पूर्ण क्रान्ति हुई या नहीं लेकिन उस क्रान्ति के नाम पर छात्रों की राजनीतिक भूमिका ऐसी जमी कि वे आज सत्ता पर काबिज हैं। इसी तरह असम में छात्रों ने चुनाव में तख्ता पलट कर सत्ता पाने में सफलता प्राप्त की। आज यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि छात्र और राजनीति में चोली-दामन जैसा
सम्बन्ध है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी के छात्र संगठन हैं और अधिकांश छात्र किसी न किसी राजनीतिक पार्टी की लहर में उसके सदस्य, समर्थक या सहयोगी बन जाते हैं। स्वेच्छाचारी, उद्दंड, असामाजिक और अपराधी नौजवान भी कदाचार की गंगा में हाथ धोकर छात्र बने हुए हैं और राजनीति के नाम पर अपराध और अशान्ति पैदा कर सरकार और प्रशासन के लिए सरदर्द बने हुए हैं। आज का माहौल इतना राजनीतिमय हो गया है, संचार माध्यमों के कारण लोग समाज से लेकर विश्व तक की राजनीति के प्रति इतने जागरूक हो गये हैं कि छात्रों को राजनीति से अलग रखने की बात करना हास्यास्पद बन गया है। जिस तरह पानी में रहना मछली की नियति है उसी तरह राजनीति में जीना छात्रों की लाचारी बन गयी है।