भारत में धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य में सभी धर्मों के प्रति आदरभाव रखता है और किसी एक धर्म का हिमायती नहीं होता। भारतीय संविधान विभिन्न धर्मों की बातों के साथ तटस्थता बरतता है और देशान्तर्गत सभीनागरिकों को धार्मिक विश्वास, पूजा की स्वतंत्रता, धार्मिक आचरण की स्वतंत्रता तथा किसी भी धर्म को मानने, प्रचार करने तथा परित्याग करने की स्वतंत्रता देता है। राज्य का न तो अपना कोई धर्म है, न वह कोई धर्म स्थापित कर सकता है और न किसी धर्म को प्रश्रय ही दे सकता है। श्री वेंकटरमण के अनुसार, “धर्मनिरपेक्षता से तात्पर्य है कि राज्य न धार्मिक है, न अधार्मिक और न धर्मविरोधी, बल्कि धार्मिक कामों और सिद्धान्तों से सर्वथा पृथक है और इस प्रकार धार्मिक मामलों में पूर्णतः स्वतंत्र है।" इस प्रकार, धर्मनिरपेक्षता भारतीय परम्परा तथा राष्ट्रीय आन्दोलन के उद्घोषित लक्ष्य एवं आधुनिक प्रगतिशील विचारधारा के अनुकूल है। वैसे तो भारतीय संविधान में प्रस्तावना को छोड़कर कहीं भी धर्मनिरपेक्ष राज्य की चर्चा नहीं की गई है, फिर भी संविधान का उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है। प्रस्तावना के अलावा, मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत भी यह कहा गया है कि नागरिकों के बीच राज्य धर्म, लिंग, जन्मस्थान, इत्यादि के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा; लेकिन संविधान में यह व्यवस्था कर दी गई है कि जब कभी भी राष्ट्र की सुरक्षा का खतरा उपस्थित होगा तब समाज के हित तथा नागरिकों की उन्नति के लिए राज्य धार्मिक मामलों में भी इस्तक्षेप कर सकेगा तथा धार्मिक स्वतंत्रता पर पाबन्दी लगा सकेगा। इसीलिए प्रो० श्रीनिवासन ने कहा है कि नए संविधान की धर्मनिरपेक्षता इतनी पूर्ण है कि आलोचक जो इसकी धर्मनिरपेक्षता से नाराज होते हैं, इसे धर्मविरोधी कहा करते हैं। लेकिन, वास्तविकता इसके विपरीत है। सच पूछिए तो भारत प्राचीन युग से ही एक नैतिक राज्य है इसका समर्थन करते हुए डॉ० राधाकृष्णन ने कहा है कि भारत राज्य वास्तविक धार्मिक राज्य है, जो सभी धर्मों के साथ मानव धर्म में विश्वास करता है। श्री एच० वी० कामथ ने संविधान सभा में कहा था कि “राज्य का किसी खास धर्म से संबंध नहीं रखने का यह अर्थ नहीं कि वह धर्मविरोधी तथा अधार्मिक होगा। भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो नास्तिक होता है, न धर्मविरोधी और न अधार्मिक । " इसी प्रकार का विचार डॉ० अम्बदेकर ने 1951 ई० में हिन्दू कोड विधेयक पर बोलते हुए दिया कि “धर्मनिरपेक्ष राज्य का अभिप्राय यह नहीं है कि लोगों का धार्मिक भावनाओं का ख्याल ही नहीं किया जाएगा। इसका अर्थ सिर्फ यह होगा कि संसद को जनता पर किसी विशेष धर्म को लादने की शक्ति नहीं होगी। संविधान द्वारा सिर्फ यहीं नियंत्रण लगाया गया है । " यदि आप पाकिस्तानी संविधान का अध्ययन करें तो देखेंगे कि उसमें धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त नहीं अपनाया गया है और इस्लाम को राज्यधर्म के रूप में घोषित किया गया है।