इस विश्व - विभूति का उदय 2 अक्टूबर, 1869 ई० को काठियावाड़ के पोरबन्दर नामक स्थान में एक कट्टर वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता करमचन्द गाँधी राजकोट- रियासत के दीवान थे। गाँधीजी का पूरा नाम मोहन दास करमचन्द गाँधी था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट में शुरू हुई। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद वे इंगलैंड गये और वहाँ इनरटेम्पुल से बैरिस्टरी की परीक्षा पास की। स्वदेश लौटने पर गाँधीजी ने वकालत शुरू की। कुछ दिनों के बाद उन्हें अब्दुला एण्ड कम्पनी के एक मुकदमे की पैरबी में अफ्रिका जाना पड़ा। अफ्रिका-प्रवास ने ही गाँधी को एक नये मुक्तिदाता के रूप में विश्व के आँगन में खड़ा कर दिया। वहाँ वे पूरे 20 वर्ष रहे। वहाँ भारतीय प्रवासियों पर होनेवाले अत्यावार से उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने उसका विरोध कर प्रवासी भारतीयों को जगाने का प्रयत्न किया और सर्वप्रथम अहिंसात्मक सत्याग्रह रूपी अपने अमोघ अस्त्र का आविष्कार कर राजनीति के क्षेत्र में अधिकार प्राप्ति के लिए सामूहिक रूप से उनका सफल प्रयोग किया। सन् 1914 ई० तक वे प्रवासी भारतीयों के लिए युद्ध करते रहे। इससे पर्याप्त सफलता मिली और जनरल स्मटस को गाँधीजी से समझौता करना पड़ा। सन् 1914 ई० से सन् 1918 ई० के विश्वयुद्ध में महात्मा गाँधी ने सरकार की सहायता करने का वचन दिया। वे संकटकाल में सरकार की सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझते थे। वस्तुत: उस समय तक वे अपने को ब्रिटिश साम्राज्य का सच्चा नागरिक मानते थे। खिलाफत आंदोलन और रॉलेट बिल को लेकर देश में जो असन्तोष फैला उसका प्रभाव महात्मा जी पर भी पड़ा।
लोकमान्य की मृत्यु के बाद काँग्रेस की बागडोर गाँधीजी के हाथों में आयी। उन्होंने कोरे प्रस्ताव की ओर ध्यान देकर जनता में जागृति उत्पन्न करने की चेष्टा की और रचनात्मक कार्य किये। सन् 1921, 1930, 1940 और 1942 ई० में उन्होंने सत्य और अहिंसा को आधार बनाकर सरकार के विरूद्ध जबरदस्त आन्दोलन किया। वे हिंसा, मुस्लिम - वैमनस्य के विरोधी थे और सदा अहिंसा तथा हिन्दू मुस्लिम ऐक्य के लिए प्रयत्न करते रहे।
सन् 1946 ई० में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग दुहरायी और 'सीधी कार्यवाही' के नाम पर पूर्वी बंगाल में अत्याचार, लूट-मार और आगजनी की घटनाएँ बहुत बढ़ गयीं। इस स्थिति में गाँधीजी स्वयं नोआखाली गये और सताये हुए हिन्दुओं को ढाढ़स बँधाया तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयत्न किया। 1947 ई० में माउण्टबेटन योजना के अनुसार भारत स्वतन्त्र कर दिया गया, परन्तु देश का विभाजन हुआ। एक हिन्दू सिरफिरे ने 30 जनवरी 1948 ई० के दिन बिड़ला भवन, नई दिल्ली में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी।
महात्मा गाँधी केवल राजनीतिक नेता नहीं थे, बल्कि विश्व कल्याणकारी तथा मानवतावादी थे। वे भारत में एक नये समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े का भेद-भाव न हो। इसे वे सर्वोदय-समाज कहते थे। महात्माजी को साम्प्रदायिक द्वेष से बड़ी घृणा थी। अछूतों को तो वे 'हरि' के समान समझते थे । हिन्दू समाज में छुआछूत की जो प्रथा फैली हुई थी; उससे वे घृणा करते थे। उसे रोकने के लिए और अछूतों की स्थिति में सुधार लाने के लिए उन्होंने 'हरिजन-सुधार आन्दोलन' चलाया। वे महान् समाज सुधारक थे और स्त्री - शिक्षा, हिन्दू-मुस्लिम एकता, अछूतोद्धार आदि के पोषक थे तथा मद-पान के विरोधी थे।
महात्मा गाँधी का दृढ़ विश्वास था कि आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना कोई देश प्रगति नहीं कर सकता। वे भारतीय जनता की दरिद्रता देखकर बहुत ही दुखी थे और पूँजीवाद को इसका प्रमुख कारण- मानते थे। अतः उन्होंने गृह उद्योग तथा लघु उद्योग, सहकारी पद्धति तथा ग्राम-स्वावलम्बन आदि का समर्थन किया तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए आन्दोलन चलाया। चरखा चलाना, सूत कातना, कपड़ा बुनना तथा अन्य कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देकर उन्होंने भारतीय दरिद्रता को दूर करने की चेष्टा की। होम्स ने तो उनकी तुलना जेसस क्राइस से की है।