19वीं सदी में स्वामी विवेकानन्द भारत के महान समाज सुधारक थे। विवेकानन्द के सामाजिक विचार निम्न हैं
1. जाति प्रथा सम्बन्धी : स्वामी विवेकानन्द को ध्यानपूर्वक विचार करने पर भारतीय समाज में इतनी असमानताएँ दृष्टिगोचर हुई कि वह असमानताओं पर ही आधारित लगा। आरम्भ में समाज को कर्म के आधार पर बाँटा गया था। परन्तु अब वह जातीय संकीर्णताओं से घिरा हुआ था। वे जाति प्रथा के बन्धनों को ढीला करना आवश्यक समझते थे। उनका विचार था कि समाज को शिक्षित करके ही चतुःवर्ण व्यवस्था समाप्त की जा सकती है, अतः वे इस कार्य के लिये आवश्यक शिक्षा पर बल देते थे। जाति भेद का अन्त करने का एक मात्र उपाय सभ्यता और शिक्षा का प्रसार है, जो उच्चतर जातियों का बल है। जाति प्रथा की संकीर्णतायें विलुप्त करने का एकमात्र उपाय निम्न वर्ग को शिक्षित करना है जिन्हें शिक्षित करके जनसाधारण का महान उपकार किया जा सकता है, उनकी दासता की कड़ियें टूट जायेंगी और सम्पूर्ण राष्ट्र का उत्थान होगा।
2. अस्पृश्यता सम्बन्धी विचार : स्वामी जी अस्पृश्यता जैसी विडम्बना को कैसे स्वीकार कर सकते थे। वे तो सामाजिक समानता में विश्वास करते थे। जाति प्रथा ने समाज को भारी क्षति पहुँचाई थी। इसी के आधार पर जो उच्च जातियाँ बन गईं वे अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगीं।
निम्न वर्ग वालों के साथ भेदभाव धीरे-धीरे इतना बढ़ा कि उनका स्पर्श भी अपवित्र करने वाला माना जाने लगा।
3. नारी उत्थान का समर्थन: एक सच्चे वैदिक धर्मानुगामी की भाँति स्वामी विवेकानन्द भी यह मानते थे कि नारी का सम्मान उचित एवं आवश्यक है तभी राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है। जिन राष्ट्रों में नारियों का आदर नहीं होता वे उन्नति नहीं कर पाये हैं और भविष्य में भी नारी जाति के सम्मान बिना उनका उन्नति करना असम्भव ही है। भाँति-भाँति के कठोर नियमों द्वारा स्त्रियों पर कड़े प्रतिबंध लगाकर उन्हें मात्र मूर्ति बना देने से न उनका उत्थान हो सकेगा, न राष्ट्र का ही। स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि स्त्रियाँ पुरुषों के समान हैं और की सेवा तथा उन्नति के लिये पुरुषों तथा स्त्रियों को मिलकर प्रयत्न करना चाहिये ।
4. मूर्ति पूजा का समर्थन : स्वामी विवेकानन्द मूर्ति पूजा के पक्ष में थे। उनके विचार से यह आवश्यक था। वे मानते थे कि हृदय में ईश्वर की एक स्पष्ट मूर्ति स्थापित होने पर ही ईश्वर की पूर्ण आराधना सम्भव है, इसके बिना नहीं। मूर्ति पूजा आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया की प्रथम अवस्था है।
5. पाश्चात्य अन्धानुकरण का विरोध: पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण का तीव्र विरोध किया। उनका कथन था कि धर्म का निवास भारत के दर्शन, संस्कृति और आध्यात्म में है। भारत को इन सबके प्रति आस्था रखनी चाहिये तथा इनको बनाये रखने के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। यदि भारतवासी इनको विस्मृत कर देंगे तो भारत नष्ट हो जायेगा। पाश्चात्य समाज की नकल करने की प्रबल इच्छा के सामने हम इतने वेवश हो जाते हैं और हममें विचार बुद्धि, शास्त्र एवं हित-अहित के ज्ञान की इतनी कमी हो जाती है कि हम भले-बुरे का निश्चय करने के लिये भी उनका सहारा नहीं ले पाते। जिस भाव अथवा आचार की गोरे लोग प्रशंसा करते हैं, उसे अच्छा और जिसकी निन्दा करें उसे ही हम बुरा मानने लगते हैं। सबसे बढ़कर मूर्खता यही तो है। स्वामी जी देश तथा समाज सुधार के हित में यह तो आवश्यक समझते थे कि प्राचीन रूढ़ियों तथा परम्पराओं में आवश्यक परिवर्तन किये जायें और अन्धविश्वास समाप्त किये जायें, परन्तु वे भारत के आध्यात्मिक मूल्यों को छोड़ने के लिए बिल्कुल तैयार न थे।