मादक औषधियों का प्रभाव व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रक्रियाओं पर पड़ता है। (i) शारीरिक प्रभाव इसके शारीरिक प्रभावों के स्पष्ट प्रमाण हमें तब देखने को मिलते हैं, जब इस व्यसन से ग्रस्त व्यक्ति इसका परित्याग करता है। परित्याग करने के फलस्वरूप कुछ असामान्य लक्षण देखे जाते हैं, जिसमें नाक या आँख से एक तरह का तरल रसस्राव, पुतली का बड़ा होना, पेशीय संकुचन, पसीना निकलना, रक्तचाप का बढ़ना, शरीर का तापमान बढ़ना, वमन एवं शरीर से जल का निकलना इत्यादि आते हैं। ये लक्षण इतने गंभीर रूप से उत्पन्न होते हैं कि कभी-कभी एकाएक मादक द्रव्यों का सेवन छोड़ देने पर व्यक्ति की मृत्यु भी हो जाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि व्यसनी व्यक्ति का शरीर रसायन इन द्रव्यों पर निर्भर करता है. इसीलिए उनके लिए यह एक शारीरिक आवश्यकता हो जाती है।
(ii) मनोवैज्ञानिक प्रभाव जहाँ तक अफीम सेवन के मनोवैज्ञानिक प्रभाव का प्रश्न है इतनी बात बिल्कुल स्पष्ट है कि अफीम के प्रति शारीरिक व्यसन मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के कारण ही होता है। इंगलैण्ड में साधारणत: यह कहा जाता है कि अफीम इसके व्यसनी को सामान्य अनुभव करने में सहायक होता है। अफीम के कारण व्यक्ति अपने को सामान्य इसलिए समझता है कि इससे उसकी आवश्यक या प्राथमिक जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इससे भोजन, प्यास और यौन संबंधी आवश्यकताएँ संतुष्ट होती हुई प्रतीत होती हैं। व्यक्ति किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक पीड़ा का अनुभव नहीं करता। उसकी चिंताएँ कम हो जाती हैं तथा वह तनाव से मुक्त रहता है। उसकी आक्रामक प्रवृत्तियाँ भी सुस्त पड़ जाती हैं।
अफीम के व्यसनी व्यक्ति में दिवास्वप्न व्यामोह एवं दूसरों में विश्वास या आस्था के लक्षण भी देखे जाते हैं।
के समक्ष रखा; जिसमें कहा गया था कि 'भारत में ब्रिटिश शासन का तत्कालीन अन्त भारत के लिए तथा मित्र राष्ट्रों के आदर्श की पूर्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है।' इसी पर युद्ध का भविष्य एवं स्वतंत्रता तथा प्रजातंत्र की सफलता निर्भर है।
8 अगस्त 1942 को प्रस्ताव पारित होने से पहले गाँधाजी ने 70 मिनट का ऐतिहासिक भाषण देते हुए कहा कि “मैं स्वतंत्रता के लिए और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता........ मैं जिन्ना साहब के हृदय परिवर्त्तन की प्रतीक्षा भी नहीं कर सकता..... यह मेरे जीवन का अंतिम संघर्ष है....... या तो हम विजयी होंगे या नष्ट हो जाएँगे।" 8 अगस्त को प्रस्ताव पारित होते ही 9 अगस्त को तड़के गाँधीजी एवं कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। गाँधी जी एवं सरोजिनी नायडू को पूना के आगा खाँ पैलेस में, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को पटना एवं जयप्रकाश नारायण को हजारीबाग जेल में रखा गया। शेष नेता अहमदनगर जेल में रखे गए।
प्रारंभ में यह आन्दोलन शहरों तक ही सीमित रहा, परन्तु जैसे ही यह ग्रामीण क्षेत्रों में फैला भी तो ऐसा जन विस्फोट हुआ कि देखकर ब्रिटिश सरकार चकित रह गई एवं यह नहीं समझ सकी कि किसानों ने विद्रोह क्यों कर दिया। आंदोलन के दौरान ही तमलुक (मिदनापुर, बिहार), तलचर (उड़ीसा) सतारा (महाराष्ट्र) एवं बलिया संयुक्त प्रांत में समानान्तर सरकारों का गठन किया गया, जिनमें तमलुक की सरकार सतीश सावंत के नेतृत्व में सर्वाधिक समय तक कार्य करती रही (सितम्बर 1944 तक) । इस आंदोलन में किसानों, छात्रों एवं महिलाओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया। मजदूरों की संख्या सीमित रही। देशी राज्यों एवं जमींदारों ने तटस्थता का रुख अपनाया तथा साम्यवादियों एवं लीग ने आंदोलन का विरोध किया। साम्यवादियों ने विरोध किया क्योंकि साम्यवाद का जनक रूस, इस युद्ध में ब्रिटेन का मित्र था तथा लीग ने इसे पाकिस्तान एवं मुस्लिम हितों के विरूद्ध समझकर उसका विरोध किया।
यह आंदोलन उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रांत, एवं महाराष्ट्र में चरम सीमा पर रहा। आंदोलन इतना विकराल था कि इसे दबाने के लिए पहली बार सेना का प्रयोग करना पड़ा। आंदोलन को दमन करने के लिए सरकार ने क्रूरता एवं जंगलीपन की सभी सीमाओं को तोड़ दिया। महिलाओं से बलात्कार एवं गाँवों में आग लगाने की घटनाएँ भी दमन का अंग बन गई। दूसरी ओर नेतृत्व विहीन जनांदोलन द्वारा भी ब्रिटिश सरकार के दृश्यमान प्रतीकों पर घातक आक्रमण किए गए। 1943 तक 208 चौकियाँ, 339 रेलवे स्टेशन एवं 945 डाकघर नष्ट कर दिए गए। 3500 टेलिफोन लाइनें काट दी गई। 664 बम विस्फोट किए गए एवं अनेक अंग्रेज अफसर एवं सैनिक मौत के घाट उतार दिए गए। सरकार ने गाँधाजी से आग्रह किया कि वे जनता से हिंसक बारदात न करने की अपील करें, परन्तु गाँधाजी ने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया।