गोपाल कृष्ण गोखले और लाला लाजपत के बारे में वर्णन करें। Gopal Krishna Gokhale Aur Lala Lajpat Rai Ke Bare Mein Varnan Karen.
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गोपाल कृष्ण गोखले के बारे में वर्णन करें। Gopal Krishna Gokhale Ke Bare Mein Varnan Karen.

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गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 1866 ई० में कोल्हापुर में हुआ था। वे 22 वर्ष की आयु में लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य हुए। उनका ज्ञान बड़ा विस्तृत था। सी० वाई चिन्तामणि के अनुसार

" गोखले बौद्धिक दृष्टि से इतने ईमानदार थे कि वे पहले अपने आप से अच्छी तरह जिरह किये बिना कभी कोई राय प्रकट नहीं करते थे। "वे फर्ग्युसन कॉलेज के प्रिंसिपल भी रहे।

गोखले ने देश के उच्च पदों पर भारतीयों की नियुक्ति न करने की सरकारी नीति की आलोचना की तथा बंगाल विभाजन की तीव्र निन्दा की। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका जाकर गाँधीजी को उनके कार्यों में सहायता दी तथा 1890 ई० में Servants of India Society की स्थापना की। गोखले न तो क्रांतिकारी थे और न ही प्रतिक्रियावादी । वे एक रचनात्मक नेता थे। उन्हें विश्वास था कि पारस्परिक घृणा और ईर्ष्या करने से ब्रिटेन और भारत दोनों को हानि है और सद्भावना एवं सहयोग से बहुत कुछ लाभ हो सकता है।

गोखले ने मिन्टो मार्ले सुधारों के पारित कराने में सहयोग किया और इन सुधारों में उन्हें पर्याप्त संतोष भी हुआ था।

गोखले भारत की राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए वैधानिक ढंग अपनाने के पक्षपाती थे। उन्हें क्रांतिकारी ढंगों पर विश्वास न था। 1919 ई० के विकेन्द्रीकरण आयोग के सामने उन्होंने अपने सुधारों की योजना रखी थी।

गोखले हृदय से देश का हित चाहते थे और सरकारी नीति की आलोचना के बावजूद भी वे उसका समर्थन करते थे।

महात्मा गाँधी को गोखले गंगा के समान मालूम हुए। लोकमान्य तिलक के अनुसार, 'गोखले भारत का हीरा, महाराष्ट्र के रत्न और मजदूरों के राजा थे।" 66 (iv) लाला लाजपत राय

राष्ट्रवादी भारत की "बाल पाल लाल" नामक त्रिमूर्ति में से एक महान् प्रतिभाशाली देश भक्त लाला लाजपतराय सन् 1865 ई० में लुधियाना जिले के जगरांव नामक ग्राम में उत्पन्न हुये थे। उन्हें उनके माता-पिता द्वारा धार्मिक एवं राष्ट्रीय शिक्षा प्राप्त हुई। इनके पिता श्री राधाकृष्ण राजकीय विद्यालय में उर्दू के शिक्षक थे और उनकी माँ धार्मिक विचारों की एक सुबोध महिला थी। रचनात्मक कार्य करने में लाला लाजपतराय ने अपनी माता के चरण चिन्हों का अनुसरण किया। एक जनश्रुति है कि लाला लाजपतराय ने एक बार यह व्यक्त किया था कि "मैं जो कुछ भी हूँ वह अपने माता-पिता की बदौलत हूँ।" यह एक सर्व सम्मति से स्वीकृत तथ्य है कि लाला जी बाल्यकाल से ही बड़े होनहार और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्ति थे। विद्यार्थी जीवन में उन्हें महात्मा हंसराज और पं० गुरुदत्त की महान् छत्रछाया और प्रेरणायें सुलभ हुई।

लाला लाजपतराय ने वकालत की शिक्षा-दीक्षा लेकर हिसार में वकालत का व्यवसाय आरम्भ किया, जिसमें उन्हें अच्छी ख्याति भी उपलब्ध हुई। इस पर भी उनका मन आर्य समाज की ओर से देश-सेवा का कार्य करने की दिशा में झुक गया। आपने आर्य समाजी शिक्षा प्रणाली को लोकप्रिय बनाने का अनवरत प्रयास करना आरम्भ किया। डी० ए० वी० कालेज की स्थापना और उसकी उत्तरोत्तर उन्नति में लाला जी का प्रयास सराहनीय था। कहा जाता है कि कालान्तर में उन्हें आर्यसमाज का क्षेत्र कुछ संकुचित दृष्टिगोचर हुआ, अत: उन्होंने सन् 1888 ई० में राजनीति के देशव्यापी रंग मंच पर कार्य करने का दृढ़ निश्चय किया। इस समय (1888 ई०) कांग्रेस राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिये लड़ रही थी अतः लाला जी इसके अमर सेनानी के रूप में राजनीति के क्षेत्र में उतर आये। उन्होंने कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सक्रिय भाग लिया। वे आजीवन राजनीति में ही संलग्न रहे। प्रायः समस्त सार्वजनिक समस्याओं पर सरकार और जनता दोनों के द्वारा उनसे परामर्श लिया जाता था। भारतीयों के एक प्रमुख नेता के रूप में उनकी महान प्रतिभा को न केवल इनकी परम भक्त भारतीय जनता ने ही प्रत्युत यहाँ की विदेशी सरकार ने भी स्वीकार किया। इस महान देश प्रेमी ने राजनीति में प्रवेश लेने के पूर्व ही मैजनी, गैरीबाल्डी, शिवाजी, स्वामी दयानन्द और भगवान कृष्ण की जीवनियां लिपिबद्ध की थी। लाला जी देश पर आने वाले किसी भी संकट का सामना करने में सबसे आगे रहते थे। उन्होंने 1905 ई० में काँगड़ा के भूकम्प के समय जनता की सहायता के लिये महान त्याग- पूर्ण कार्य किये।

सन् 1920 ई० में जब लाला लाजपतराय भारत लौटे तो सितम्बर मास में कांग्रेस ने अपना विशेष अधिवेशन आयोजित किया। लाला जी इसके सभापति निर्वाचित हुए किन्तु जब महात्मा गाँधी ने उनके समक्ष अपने असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम प्रस्तुत किया तो आपने उसे अपनी स्वीकृति प्रदान नहीं की। डा० पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि लाला लाजपतराय राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में एक योद्धा थे, सत्याग्राही नहीं। उन्होंने कांग्रेस में रहकर इसके सदस्यों और विशेषकर लोकमान्य तिलक और बिपिनचन्द्र पाल के साथ मिलकर एक नेशनलिस्ट दल बनाने का प्रयास किया।

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