प्राचीन काल से ही भारत में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना रहा है । वैदिक धर्म की आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत मानव जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास | इनमें ब्रह्मचर्य आश्रम का संबंध विद्यार्जन से है। प्राचीन काल में वेद, उपनिषद, वेदांग, पुराण, ज्योतिष, गणित, नक्षत्र - विज्ञान, सर्पविद्या खनिज-विद्या, प्राकृतिक भूगोल, तर्कशास्त्र आदि का अध्ययन विशेष रूप से किया जाता था। इसके अतिरिक्त ब्रह्म-विद्या, भूत विद्या, नीति-शास्त्र, राज्य शासन विद्या, व्याकरण, दर्शन, चिकित्सा शासन, पोत- निर्माण कला आदि से संबंधित ज्ञान भी अर्जित किया जाता था। प्राचीन काल में शिक्षा प्रणाली दो वर्गों में विभक्त थी- सामान्य शिक्षा एवं उच्च शिक्षा ।
सामान्य शिक्षा की प्राप्ति हेतु उपनयन संस्कार के बाद बालक को गुरूकुल भेज दिया जाता था।
प्रारम्भ में वर्णमाला एवं गणित की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इसके उपरान्त वर्णों के अनुसार तकनीकी शिक्षा दी जाती थी ।
सामान्य शिक्षा की प्राप्ति के बाद उच्च शिक्षा प्राप्ति इच्छुक छात्र प्रतिष्ठित आचार्यो एवं विश्वविद्यालयों की शरण में जाते थे। विदेह राज जनक ऐसे ही प्रतिष्ठित आचार्य थे। उनके पास सुदूर प्रदेशों से विद्यार्थी तत्व-ज्ञान की प्राप्ति हेतु आते थे।
छठी शताब्दी के बाद प्राचीन बिहार में पाँच प्रकार के शिक्षा केन्द्र थे- राजधानियाँ, तीर्थ, विहार, मन्दिर एवं अग्रहार ग्राम । प्राचीन बिहार की दो प्रसिद्ध राजधानियाँ तक्षशिला एवं मिथिला थी। प्राचीन बिहार एक प्रगतिशील राज्य था अतः इसमें शिक्षा का विकास भी स्वाभाविक था। प्रारम्भ में एकमात्र तक्षशिला ही प्रमुख विश्वविद्यालय था किन्तु शनैः शनैः नालन्दा, विक्रमशिला व ओदन्तपुरी आदि विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई।
नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना कुमार गुप्त ( 415-454 ई०) के द्वारा की गई थी। यह विश्वविद्यालय पटना से लगभग 40 मील दक्षिण-पूर्व (आधुनिक पडगाँव) में स्थित था। प्रारंभ में इसकी स्थापना एक विहार के रूप में की गई थी। आठवीं शताब्दी तक इसे अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो गई थी तथा यह सर्वोत्तम शिक्षण संस्था का स्तर प्राप्त कर चुका था। यहाँ एक बड़ी
संख्या में चीन, तिब्बत, कोरिया व मध्य एशिया के छात्र अध्ययन एवं शोध-कार्य हेतु आते थे। उत्खनन से प्राप्त जानकारी के अनुसार विश्वविद्यालय में आठ विशाल सभाकक्ष एवं तीन सौ छोटे कमरे थे जहाँ प्रतिदिन कक्षायें संचालित होती थी। यहाँ एक विशाल पुस्तकालय ‘धर्मगंज’ भी था जहाँ ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों का विशाल भंडार था। आचार्यों के निर्देशन में यहाँ छात्र पुराने ग्रन्थों का पुनर्लेखन करते थे। साथ ही नवीन ग्रन्थों की रचना करते थे। छात्रों को विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए द्वारपाल से वाद-विवाद करना पड़ता था तथा सफल होने के उपरान्त ही उन्हें प्रवेश मिल पाता था।
इस विश्वविद्यालय के कुलपति महान विद्वान शीलभद्र थे तथा शिक्षकों के रूप में महान विभूतियाँ अग्रलिखित थीं। - चन्द्रपाल, धर्मपाल, जिनमित्र, प्रभामित्र, ज्ञानचन्द्र, स्थिरमति, गुणमति, वसुबंध, असंग, धर्मकीर्ति, नागार्जुन आदि । बौद्ध धर्म के महायान पंथ का प्रमुख शिक्षा केन्द्र होने के कारण यहाँ शिक्षा का माध्यम 'पाली भाषा' था। यहाँ बौद्ध धर्म व दर्शन तो पढ़ाया जाता ही था, इसके साथ ही तर्क, वेद, सांख्य दर्शन एवं चिकित्सा शास्त्र की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। युआनच्यांग अनुसार यहाँ लगभग 10,000 छात्र पढ़ते थे। -
बारहवीं शताब्दी में यह विश्वविद्यालय नष्ट हो गया । कतिपय इतिहासकारों की मान्यतानुसार इसे बख्तियार खिलजी ने नष्ट किया तो कुछ का मानना है कि यह अग्निकांड से नष्ट हुआ। सत्यता कुछ भी रही हो किन्तु वर्तमान में इस विश्वविद्यालय के खंडहर ही शेष है। वर्तमान समय में सरकार इसे पुनर्जीवित कर रही है।