भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उग्रवादी नेताओं में तिलक का नाम सबसे पहले आता है। उग्र - राष्ट्रवादी आन्दोलन के अग्रदूत तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को शिवाजी की भूमि महाराष्ट्र में हुआ था। वे कुशाग्र बुद्धि थे और बचपन से ही उनका हृदय विद्रोही भावनाओं से पूरित था। वे कट्टर हिन्दू थे और उन्हें भारतीय संस्कृति पर गर्व था। बाल्यकाल से विलक्षण बुद्धि वाले तिलक ने सन् 1876 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और सन् 1879 में एल.एल.बी. परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अपना जीवन शिक्षक के रूप में प्रारम्भ किया।
तिलक विदेशी शासन को अभिशाप समझते थे। उन्होंने जीवन भर ब्रिटिश शासन को चुनौती दी और अन्याय के विरूद्ध संघर्ष किया। तिलक जीवन भर ब्रिटिश सरकार के लिए खतरा बना रहे। महाराष्ट्र में उग्रवादी आन्दोलन की स्थापना का श्रेय तिलक को ही है। उन्होंने महाराष्ट्र के लोगों में वीरता की भावना उत्पन्न करने के लिए गौहत्या विरोधी सोसाइटी अखाड़े और लाठी क्लब स्थापित किये जिससे लोग स्वराज्य के लिए बलिदान कर सकें। तिलक ने सन् 1893 में गणपति उत्सव एवं सन् 1895 में शिवाजी उत्सव प्रारम्भ किया। इन दोनों समारोहों ने महाराष्ट्रवासियों में धार्मिक भावना पैदा की और उन्हें एक मंच पर इकट्ठा किया, इनमें एकता स्थापित कर उनमें नया उत्साह पैदा कर शिवाजी के पचिन्हों पर चलने पर बल दिया। इसके अतिरिक्त, जनता में जागृति फैलाने के लिए 'केसरी' एवं 'मराठा' समाचार पत्र प्रकाशित किये। उन्होंने चालीस वर्षों तक सशक्त एवं संघर्षशील राष्ट्रवाद तथा देश भक्ति का प्रचार किया। तिलक का सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि के लिए कष्टों व बलिदानों से पूर्ण रहा। - -
उन्होंने ब्रिटिश शासन की अन्यायपूर्ण नीति के प्रति विद्रोह की भावना पर बल दिया तथा देशवासियों को नारा दिया कि "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है मैं इसे लेकर रहूँगा । "
सन् 1908 में तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। उन पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने अपने केसरी समाचार पत्र में सरकार विरोधी लेख प्रकाशित किये हैं। निर्दोष होने पर भी उन्हें दोषी ठहराकर 6 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाकर बर्मा (म्यांमार) की माण्डले जेल भेज दिया गया जहाँ उन्हें नजरबन्द रखा गया। इस 6 वर्ष के कठोर कारावास में उन्होंने 'गीता रहस्य' और 'वेदों का आर्कटिक गृह' नामक दो प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं जो उनकी विद्वता को स्पष्ट करती हैं।
सन् 1914 में जेल से रिहा होने पर तिलक पुनः राष्ट्रीय आन्दोलन की आत्मा बने। उन्होंने श्रीमती एनी बेसेन्ट के साथ मिलकर सन् 1916 में होमरूल (गृहशासन) आन्दोलन चलाया। तिलक का कहना था कि जब तक सरकार की ओर से होमरूल (गृह शासन) का आश्वासन न दिया जाये, तब तक भारतीयों को प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार की सहायता नहीं करनी चाहिए। तिलक ने सन् 1918 में सर बैलेण्टाइन शिरोल के विरूद्ध मानहानि का मुकदमा दायर किया क्योंकि शिरोल ने उन्हें राजद्रोही कहकर सम्बोधित किया था। इस मुकदमे के लिए तिलक इंग्लैण्ड गये परन्तु सरकार के पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण वे यह मुकदमा हार गये। सन् 1919 के भारत शासन अधिनियम का उन्होंने समर्थन किया। 1 अगस्त, 1920 को असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ होने वाला था, इसी समय तिलक का निधन हो गया।
लोकमान्य तिलक महान राष्ट्रभक्त ही नहीं, वरन राजनीतिज्ञ, दार्शनिक व चिन्तक भी थे। उनकी गरमपंथी विचारधारा ने तत्कालीन समय में तिलक युग की शुरुआत की। उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक नयी दिशा दी। उनका दिया हुआ नारा “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है", भारतीय स्वाभिमान और गौरव का निश्चय ही प्रेरणास्त्रोत है। अपने कार्यों के कारण वे भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेंगे।