हमारा देश वस्तुतः एक महादेश है। इसमें अनेक जातियों, वर्णों, धर्मों और मतों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। उनकी चिन्तन प्रणाली में विविधता तो है ही भाषा, वेश-भूषा, रीति-रिवाज और व्यवहार में भी भिन्नता है। इसके बावजूद हम एक साथ मिलकर रहते हैं। यह हमारी विशेषता है। इसी विशेषता को लक्षित कर कहा गया है कि भारत 'अनेकता में एकता' का देश है।
इस एकता का सूत्र है साम्प्रदायिक सद्भाव। सम्प्रदाय शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है- (1) धर्म विशेष के अर्थ में (2) धार्मिक विचार विशेष में आस्था के अर्थ में। जब हम बल्लभ सम्प्रदाय, रामानुज सम्प्रदाय, वैष्णव सम्प्रदाय, शैव सम्प्रदाय जैसे प्रयोग करते हैं तो हमारा आशय एक ही धर्म- हिन्दू धर्म के भीतर वैचारिक मान्यता की दृष्टि से भिन्न समुदायों से होता है। लेकिन आजकल राजनीतिज्ञों की कृपा से और अखबारों में प्रचलित शब्दावली के रूप में सम्प्रदाय का अर्थ धर्म विशेष माना जाने लगा है। जब साम्प्रदायिक दंगे या साम्प्रदायिक दल या साम्प्रदायिक भावना उभारना जैसे शब्दों का प्रयोग होता है तो उसका मुख्य आशय हिन्दू और इस्लाम धर्म से होता है। यह इस शब्द का सबसे संकुचित अर्थ है। क्योंकि यदि सम्प्रदाय का अर्थ धर्म विशेष मानें तो भारत में केवल दो ही धर्म हिन्दू और इस्लाम को माननेवाले लोग नहीं बसते हैं। यहाँ पारसी भी हैं और ईसाई भी। लेकिन इस शब्द से इन धर्मो का बोध नहीं कराया जाता है।
जब साम्प्रदायिक सद्भाव की बात की जाती है तो मुख्यतः हमारा प्रयोग हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सद्भाव से होता है और गौणत: सिक्खों, ईसाईयों, पारसियों के बीच सद्भाव से भी होता है। कभी-कभी इसका अभिप्राय हिन्दुओं के बीच प्रचलित शैव वैष्णव जैसे सम्प्रदायों तथा उसी से निकले बौद्धों, जैनों के बीच के सद्भाव से भी होता है। लेकिन मेरा सोचना है कि भारतीय समाज में जितने भी मतावलम्बी हैं और जितने भी धर्म हैं उन सबके बीच अपनत्व और भाईचारा के अर्थ में साम्प्रदायिक सद्भाव शब्द का प्रयोग होना चाहिए। तभी यह शब्द अपनी सही अर्थ गरिमा को प्राप्त कर सकेगा। साम्प्रदायिक सद्भाव का अर्थ हिन्दू मुस्लिम सद्भाव लेना इसके अर्थ को संकुचित करना होगा।
फिर भी इस बात का उत्तर देना जरूरी है कि साम्प्रदायिक सद्भाव का अर्थ हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव ही क्यों ग्रहण किया जाता है, अथवा इसका यह संकुचित अर्थ क्यों प्रचलित है। इसका उत्तर बहुत साफ है। आबादी की दृष्टि से मुसलमान भारत में दूसरे स्थान पर हैं। ईसाई या पारसी इनसे कम हैं। जहाँ तक बसने का प्रश्न है वहाँ ईसाई शहरों तक सीमित हैं और पारसी महाराष्ट्र तक जबकि मुसलमान सारे भारत में फैले हैं। हिन्दुओं ने मुसलमानों को सदा आक्रामक माना तो मुसलमानों ने अतीत में तलवार के बल पर हिन्दुओं को धर्मान्तरित कर मुसलमान बनाया। इस ग्रंथि के कारण हिन्दु न मुसलमानों को पचा पाते हैं और मुसलमान हिन्दुओं को अपना समझ पाते हैं। इसलिए जब भी अवसर आता है किसी न किसी कारण इनके बीच झगड़े होते हैं जो तुरंत धर्मगत खून खराबे में बदल जाते हैं और जो भी मिलता है उसे दोनों काटने मारने लगते हैं। भारत विभाजन के समय मुसलमानों ने जिस प्रकार नौआखाली में हिन्दुओं को मारा अथवा हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जानेवाले मुसलमानों को अथवा पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आने वाले हिन्दुओं और सिक्खों को मारा गया उससे यह ग्रंथि और भी जटिल हुई, गाँठ कड़ी हुई। ये दुर्भाव जब-जब भड़के, दंगे हुए और उसे नेताओं ने और अखबारों ने साम्प्रदायिक नाम दिया तथा इन धर्मावलम्बियों की तरफदारी करने वाली पार्टियों को साम्प्रदायिक पार्टी माना।
इस वास्तविकता के बावजूद हमारा देश धार्मिक दृष्टि से धर्मनिरपेक्ष देश है। इसके संविधान में सभी नागरिकों को समान न्याय और समान राजनीतिक अधिकार दिये गये हैं। सभी धर्मावलम्बियों और मातवलम्बियों को धर्म प्रचार, धर्मस्थान-स्थापना और धर्मविशेष को मानने की स्वाधीनता को स्वीकार किया गया है। राजनीति या शासन में धर्म विशेष के निर्देश और वर्चस्व को इनकार किया गया है। देश के विकास में सभी नागरिकों की भागीदारी मानी गयी है। धर्म के आधार पर किसी प्रकार के दुहरे मानदण्ड को स्वीकार नहीं किया गया है। साथ ही धर्म के नाम पर किसी भी सम्प्रदाय के व्यक्ति द्वारा दूसरे सम्प्रदाय के व्यक्ति को पीड़िता करना दण्डनीय अपराध माना गया है, धार्मिक उन्माद में आकर कोई भी व्यक्ति सामाजिक शान्ति को भंग करने के लिए स्वाधीन नहीं है। धार्मिक मनमानी और उत्पीड़न अपराध है। इसे रोकने के लिए कानून है और नागरिकों के जाल-माल की सुरक्षा की गारंटी दी गयी है।
लेकिन यह तो निषेधात्मक पक्ष है। विधेयात्मक पक्ष यह है कि सभी धर्मों के लोगों के बीच पारस्परिक सहनशीलता और भाई चारा विकसित किया जाय। असामाजिक और उपद्रवी तत्वों द्वारा सद्भाव को तोड़ने या शान्ति भंग करने की दशा में दोनों सम्प्रदायों के प्रबुद्ध जनों को लेकर शान्ति स्थापित करने का प्रयास किया जाय। अवांछित लोगों पर प्रशासन और नागरिकों द्वारा नजर रखी जाय कि वे दुर्भावना फैलाकर शान्ति भंग करने का अवसर न पा सकें।
एक दूसरे के पर्व-त्योहारों में सम्मिलित होना एक दूसरे के सुख-दुख में भागीदार बनकर सहायता करना और ऐसा करनेवालों का आदर करना उनकी बातें मानना, धर्म के आधार पर पक्षधर न बनकर उचित न्याय की बातें करना भी साम्प्रदायिक सद्भाव को प्रगाढ़ करता है। अभिप्राय यह कि दो व्यक्तियों को लड़ने से रोकने से बेहतर है कि दोनों को प्रेम से रहना सिखाया जाय। क्योंकि, लड़ने की मानसिकता वाले कभी मौका पाकर लड़ सकते हैं। अतः कृत्रिम उपाय से शान्ति बनाये रखने से बेहतर है कि हृदयों को जोड़कर सच्ची शान्ति कायम की जाय।