संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से पूर्व अनेकानेक घोषणाओं एवं अधिनियमों द्वारा मानव अधिकारों को मान्यता दी जा चुकी थी। सन् 1215 के मैग्नाकार्टा 1676 का ब प्रत्यक्षीकरण अधिनियम, सन् 1689 का बिल ऑफ राइट्स, 1776 की अमेरिकी स्वातंत्र्य घोषणा तथा 1789 ई. की मानव अधिकार की फ्रांसीसी घोषणा ने मानव अधिकारों को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। द्वितीय महायुद्ध के बाद 1945 ई. में संयुक्त राष्ट्र संघ का घोषणा पत्र तैयार करने हेतु सेन फ्रांसिस्को में सम्मेलन आयोजित हुआ तब सोवियत संघ के प्रतिनिधिमंडल की चहलकदमी पर ही घोषणा पत्र तैयार करने वालों ने मानव अधिकारों तथा मूलभूत स्वतंत्रताओं के सम्मान से संबंधित प्रावधानों को उसमें शामिल करने की आवश्यकता को स्वीकार किया था। अन्ततः 10 दिसम्बर 1948 ई. को संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषण सर्वसम्मति से की।
5 मार्च, 1984 को मानवाधिकार आयोग के 50वें सम्मेलन में एक प्रस्ताव पारित कर सर्वसम्मति से आतंकवाद की जमकर निन्दा की गई। इस प्रस्ताव को पेरु ने रखा था जबकि भारत तथा कई अन्य देश इसके सह प्रस्तावक थे। में सभी देशों से अनुरोध किया गया है कि वे आतंकवाद को रोकने, निपटने तथा उसके उन्मूलन के लिए मानवाधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप सभी आवश्यक व कारगर कदम उठायें। इस पर अपना विचार रखते हुए भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सूत्रानुसार संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में आतंकवाद स प्रस्ताव पारित होने का मतलब संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवाद के खिलाफ जनादेश है। साथ ही इससे भारत के इस नजरिए की पुष्टि होती है कि मानवाधिकारों को सबसे गम्भीर खतरा आतंकवाद से है न कि राज्य से।
मानवाधिकार आयोग के निर्मित किये जाने के बाद भारत में 29 सितम्बर, 1993 को सदस्यीय राष्ट्रीय मानवाधिकार संरक्षण आयोग के गठन की घोषणा हुई। आयोग का अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश श्री रंगनाथ मिश्र को बनाया गया। भारत सरकार आयोग का गठन कर मानवाधिकार का हनन कितना व किस सीमा तक रोक पायेगी, यह तो फिलहाल विशेष रूप से नहीं कहा जा सकता लेकिन यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जवाब देने में अवश्य सक्षम होगा। यह आयोग भारत विरोधी प्रचार में ढाल का काम कर सकता है। विश्व के प्रायः सभी देश इससे भली-भाँति अवगत हैं कि 30 धाराओं वाली यह घोषणा लोकतांत्रिक तथा समाजवादी शक्तियों के बढ़े हुए प्रभाव के अन्तर्गत और मानव अधिकारों की सशक्त कार्यवाहियों के परिणामस्वरूप ही स्वीकार की गई थी।
अमरीकी तथा फ्रांसीसी क्रांति के बाद मानव अधिकारों की जो घोषणा हुई उसके द्वारा मानव के महत्त्वपूर्ण अधिकारों को स्वीकार किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में मानव अधिकारों के आदर्श को स्वीकार करने के बाद संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार आयोग (U. N. Commission on Human Rights) को मानव अधिकारों के मूलभूत सिद्धांतों का मसविदा तैयार करने का कार्य सौंपा गया। 'मानव अधिकार आयोग' ने 'मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा' का मसविदा तैयार किया और महासभा ने कुछ संशोधनों के साथ 10 दिसम्बर, 1948 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया।
मानव अधिकारों के आदर्श को संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में स्वीकार किया गया। चार्टर के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र संघ को मानव अधिकारों के सम्बन्ध में केवल प्रोत्साहन देने का ही अधिकार है, न कि कोई कार्यवाही करने का। वास्तव में, चार्टर इस संबंध में राष्ट्रों के मध्य सहया अधिक आवश्यक मानता है। इसी क्रम में संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार आयोग (UN ommission on Human Rights) को मानव अधिकारों के मूलभूत सिद्धांतों का मसौदा तैयार ने हेतु सौंपा गया। तीन वर्षों के प्रयत्नों के बाद आयोग ने मानव अधिकारों की विश्वव्या पणा तैयार किया जिसे संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने कुछ संशोधनों के साथ 10 दिसम्बर 1948 आम सहमति से स्वीकारा।
लेकिन मानवाधिकार आयोग के कार्य क्षेत्र को लेकर यह आलोचना का भी केन्द्र बिन्दु रहा है। आयोग का कार्य क्षेत्र आयु बढ़ने के साथ ही संकुचित होता जा रहा है। यह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में प्राय: विफल रहा है जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उसका न किया था। इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आज सम्पूर्ण विश्व में मानव कारों का विस्तृत पैमाने पर हनन हो रहा है और मानवाधिकार आयोग कुछ पक्षपातपूर्ण रपटें प्रकाशित करने के अलावा कुछ विशेष नहीं कर सका है।