वनों के संरक्षण पर निबंध लिखें। Van Ke Sanrakshan Per Nibandh Likhen.
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वनों के संरक्षण पर निबंध लिखें। Van Ke Sanrakshan Per Nibandh Likhen.

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Ans. पिछली कई शताब्दियों से जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ मानव द्वारा वनों की कटाई अधिक मात्रा में होती रही है। वनों को काटकर कृषि के लिये भूमि साफ की जा रही है। मकान बनाने के लिये, पुलों और नावों के लिये, घरेलू और कारखानों के ईंधन के लिये, पशु पालन के लिये तथा औद्योगिक निर्माण के लिये प्रत्येक देश में वन काटे जाते हैं।

वनों की अत्यधिक कटाई (deforestation) के चार मुख्य दुष्परिणाम हो रहे हैं(1) वनों के अधिक कटने से भूस्खलन (land sliding) और भूमि कटान तथा मृदाअपरदन (soil erosion) हो रहा है। इससे मानव निवास की भूमि कम होती जा रही है, कृषि करनेकी भूमि कम होती जा रही है। कृषि के उत्पादनों के लिये मिट्टियों की उर्वर शक्ति घटती जा रही है।

(2) बाढ़ों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। बस्तियों के बढ़ने के साथ पशुधन और मनुष्यों की भी क्षति हो रही है। (3) जो लकड़ी निर्माण उद्योगों में कागज की लुगदी, नकली रेशम, प्लास्टिक, आदि के लिये कच्चे मालों (raw materials) की तरह प्रयुक्त होती है, वह दिनों-दिन कम होती जा रही है। वनों से प्राप्त होने वाले अन्य कच्चे मालों में भी दिनों-दिन कमी होती जा रही है, जबकि इन कच्चे मालों की आवश्यकता प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

इससे जन-धन का ह्रास बढ़ रहा है।मानवीय

(4) वनों के द्वारा पृथ्वी की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक रहती है। वनों के अधिक काटने से मानवीय स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त जलवायु नहीं मिलेगी। महामारी जैसे रोग बढ़ेंगे और मानवीय स्वास्थ्य खराब होता जायेगा।

अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने मानवीय जगत, जन्तु जगत और वनस्पति जगत के इस सहजीव सन्तुलन (symbiotic ecologic balance) को नष्ट होता हुआ देखकर, अब इन जीवधारी संसाधनों (living resources) के समुचित विकास, सन्तुलन और संरक्षण (conservation ) पर बल देना आरम्भ कर दिया है।

वन संरक्षण की तकनीकें

1. आरक्षित वनों का संरक्षण (Conservation of reverse forests)- आरक्षित वन ऐसे क्षेत्रों में स्थित हैं जहाँ जल ग्रहण क्षेत्र (Water regimes) अवस्थित हैं, जैसे- राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, पवित्र वाटिकाएँ (sacred groves) जैव-आरक्षित क्षेत्र तथा सभी पारिस्थितिक रूप से भंगुर (fragile) क्षेत्र। इन क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के वाणिज्यिक विदोहन की अनुमति नहीं दी जाती। इन्हें ग्रामवासियों द्वारा जलाऊ लकड़ी काटने तथा पशु चराने से भी बचाना आवश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये जनचेतना तथा सहयोग आवश्यक है। इस दिशा में उत्तराखण्ड में समाजसेवी सुन्दरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में 'चिपको आन्दोलन' (1978) का विशेष योगदान रहा है। कर्नाटक में 'अप्पिको आन्दोलन' (1983) भी उल्लेखनीय है।

2. वनों की नियन्त्रित एवं वैज्ञानिक विधि से कटाई (Forestation by controlled and scientific technique)- वन संरक्षण के लिये आवश्यक है कि वैज्ञानिक विधि से कटाई की जाये तथा अन्धाधुन्ध कटाई पर नियंत्रण किया जाये, तभी दीर्घकाल तक वन संसाधनों का उपयोग संभव है। वर्तमान समय में अधिक मात्रा में लकड़ी काटने का कार्य ऐसे भागों में स्थानान्तरित होना चाहिए, जिन क्षेत्रों में वनों की बाहुल्यता ( abundance) है। बहुत से क्षेत्रों में अस्थायी (स्थानान्तरी) कृषि उपयोग के लिये वृक्षों की कटाई की जाती है, इसे रोका जाना चाहिये तथा ऐसे वन क्षेत्रों को प्रतिबन्धित क्षेत्र घोषित कर देना चाहिये। 3. वनों का आग से बचाव (Protection of forests from fire) - वनों की आग से विस्तृत क्षेत्र नष्ट हो जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1955 से 1964 तक दस लाख से अधिक वनों में आग लगने की घटनायें हुई। आग लगने का मुख्य कारण वनों में मनुष्य द्वारा आग का असावधानीपूर्वक प्रयोग है। वनों में लगने वाली आग का लगभग आधी घटनायें वनों में जलती माचिस की सीकों से तथा कैम्प फायर (camp fire) से होती है। ये कैम्प फायर शिकारियों तथा वनों से एकत्रीकरण करने वाले लोगों द्वारा आयोजित किये जाते हैं। प्रायः आग के सुरक्षात्मक नियमों का पालन न कर पाने के कारण भी वनों में आग लग जाती है।

4. वनों का हानिकारक कीटों से संरक्षण (Protection of forests from insects)- वनों पें बहुत से जीव ऐसे होते हैं जो वृक्षों को हानि पहुँचाते हैं, जैसे- दीमक, सूंडी, झींगुर, गुबरेला आदि। दीमक वृक्षों की लकड़ी को खाकर कम उपयोगी बना देता है। सूंडी, झींगुर तथा गुबरैला, आदि हानिकारक जीव अंकुरित बीजों, छोटे पौधे और वृक्षों की नयी पत्तियोंजीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि उन्हें देख पाना मुश्किल होता है।

कीटाणुओं से रोगग्रस्त होकर वृक्ष जल्दी सूख जाते हैं। इन हानिकारक जीवों एवं कीटों को नष्ट करना तथा रोगों को रोकना अत्यावयक है। इसके लिये वायुयानों द्वारा रासायनिक कीटाणुनाशक दवाइयों का छिड़का जाना चाहिए। परन्तु इससे जहाँ हानिकारक जीव नष्ट होते हैं, वहीं कुछ लाभकारी जन्तुओं में भी विकार पैदा हो जाते हैं। अतः हानिकारक जीवों के लिए जैविक नियंत्रण विधियों को अपनाये जाने पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये । इस समस्या के हल के लिये वैज्ञानिकों द्वारा अनुसंधान किये जाने का उचित प्रबन्ध होना आवश्यक है।

5. पुनर्वनारोपण (Reforestation)- वन संसाधनों के संरक्षण में अर्थात् दीर्घकाल तक वनों के अनुकूलतम उपयोग के लिये अत्यावश्यक है कि जहाँ से वनों की कटाई की गई है वहाँ पर कुछ नये वृक्ष लगाये जायें। इसके अलावा मृदा अपरदन के क्षेत्रों में भी वनारोपण किया जाना चाहिए। इसके लिए वन-भूमियों को सरकारों ने अपने अधिकार में ले लिया है। विभिन्न प्रकार के वृक्षों के लिए अनुकूलतम वातावरण को विचारते हुए तथा राष्ट्रीय आवश्यकताओं को विचारते हुए वनारोपण को बढ़ाया जा रहा है, ताकि मानव द्वारा वनस्पति का ह्रास होने से रूका रहे।

6. सामाजिक ( सामुदायिक) वानिकी (Social community foresty ) - सामाजिक वानिकी का संबंध समाज के कल्याण, विशेषतः निर्धन ग्रामीणों के प्रति जो अपने जीवन निर्वाह की अधिकांश आवश्यकताएँ वनों से पूरी करते हैं, से है। इस प्रकार, सामाजिक वानिकी व केवल विनष्ट भूमियों के पुनरुद्धार में सहायक है, अपितु निर्धन ग्रामीणों को रोजगार के अवसर भी प्रदान करती है। वस्तुतः सामाजिक वानिकी समाज के निर्धन वर्ग की निर्धनता तथा बेरोजगारी की समस्याओं को सुलझाने के लिये सामुदायिक आधार पर वृक्षारोपण का एक कार्यक्रम है। विश्व खाद्य संगठन (FAO, 1978) के अनुसार सामुदायिक वानिकी स्थानीय लोगों को घनिष्ठ रूप से पुनर्वनारोपण में सम्मिलित करने का कार्यक्रम है।

भारत में सामाजिक वानिकी की संकल्पना 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी थी, जिसका उद्देश्य वनों से जलाऊं लकड़ी, चारा, वनोपज, आदि प्राप्त करने वाले स्थानीय लोगों को वन संरक्षण के प्रति प्रोत्साहित करना था।

7. कृषि वानिकी (Agro foresty) - कृषि वानिकी का अभिप्राय ऐसा भूमि उपयोग व्यवस्था (तंत्र) से है जिसमें फसलों तथा पशुओं के साथ-साथ उसी भूमि के टुकड़े पर वृक्षों को भी सम्मिलित किया जाता है। कृषि वानिकी द्वारा कृषि तथा वानिकी की टेक्नॉलॉजी को सम्मिलित करते हुए अधिक समेकित, विविध उत्पादक लाभकारी, स्वस्थ तथा वहनीय (sustainable) भूमि उपयोग तन्त्र विकसित किया जा सकता है। यह व्यवस्था कृषक तथा पर्यावरण दोनों के लिये लाभकारी होती है।

भारत में कृषि वानिकी व्यवस्था नयी नहीं है। मानव ने जबसे खेती करना तथा पशुपालन प्रारम्भ किया तभी से कृषि वानिकी प्रचलित रही है। वस्तुतः भारत में अधिकांश कृषक फसलें उगाने, पशु पालने तथा अपने खेतों की सीमाओं पर वृक्ष लगाने का कार्य करते हैं किन्तु बीसवीं सदी में तेजी से घटते हुए वन क्षेत्र तथा नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण, बंजर भूमि का क्षेत्र तीव्र दर से बढ़ने के कारण कृषि वानिकी में विस्तार की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। अतएव 1970 के दशक के अन्तिम वर्षों में भारत में कृषि वानिकी कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इससे सामाजिक वानिकी की विविध परियोजनाएँ विकसित की गयीं जिससे कृषकों को अतिरिक्त आय तथा जीवन निर्वाह हेतु जलाऊ लकड़ी, चारा, वनोपजें आदि लाभ उपलब्ध होने लगे। छायादार वृक्षों के नीचे चाय तथा कहवा उगाना, नारियल के वृक्षों के मध्य अन्य फसलें उगाना, घरेलू उद्यान तथा स्थानान्तरी कृषि वानिकी के कुछ उदाहरण हैं। कृषि वानिकी वनों पर कृषकों को खा जाते हैं। कुछकी निर्भरता को कम करती है। इससे उनकी निजी भूमियों पर आर्थिक, पर्यावरणीय तथा घरेलू आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। इस प्रकार कृषि वानिकी शस्य भूमियों की उत्पादकता में वृद्धि तथा पुनर्वनारोपण द्वारा चारे तथा जलाऊ लकड़ी की बढ़ती हुई आवश्यकताओं (माँग) को पूरा करने में सहायक सिद्ध होती है।

भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार की कृषि पद्धतियाँ प्रचलित हैं। इनमें उत्तरी राज्यों में कृषि-वनसंवर्धन (agri-silviculture ) - ( फसलों के साथ यूक्लिपट्स तथा पोपलर वृक्ष उगाना), केरल में 'टोंग्या' प्रणाली (Taungya system) ( फसलों के साथ साल के वृक्ष उगाना), खेतों की सीमाओं पर वृक्षारोपण, घरेलू बाग तथा घरों के अहातों में बाग लगाना, गुजरात महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में ऊर्जा रोपण ( energy plantations), विभिन्न राज्यों में वन-वर्द्धन तथा पशुचारा के साथ सामुदायिक वानिकी कार्यक्रम तथा सड़कों के सहारे वृक्षारोपण तथा उत्तरी पूर्वी राज्यों में स्थानान्तरणशील खेती-सम्मिलित है।

वन-संवर्धन पशुचारण (silvi-pastoral) व्यवस्था के अन्तर्गत घासों, जड़दार फसलों तथा वृक्षों का समेकन किया जाता है। इस पद्धति में वृक्षों तथा झाड़ियों की बहुउद्देशीय किस्मों का चयन किया जाता है।

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