जल से उत्पन्न रोगों का वर्णन करें। Jal Se Utpann Rog Ka Varnan Karen.
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जल से उत्पन्न रोगों का वर्णन करें। Jal Se Utpann Rog Ka Varnan Karen.

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Ans. कालरा, आँत्र ज्वर, हेपेटाइटिस, अतिसार आदि जल से उत्पन्न होने वाले रोग हैंकालरा - विब्रियो कॉलेरी (Vibrio cholera) नामक जीवाणु दूषित भोजन या पानी के साथ मनुष्य की छोटी आँत को संक्रमित करता है एवं एक विषाक्त पदार्थ स्रावित करता है जिसके कारण बार-बार पाखाना होता है। इसे कॉलरा कहते हैं।

लक्षण (Symptions) : बार-बार पानी जैसा पाखाना के साथ उल्टी होना, कमजोर एवं वेचैनी महसूस करना, आँखों का अंदर की ओर धँसना, बहुत कम मूत्र त्याग करना इत्यादि इस बीमारी के प्रधान लक्षण हैं। इन लक्षणों को देखते ही रोगी को जल्द ही किसी अनुभवी डॉक्टर से दिखा लेना चाहिए।

नियंत्रण (Control) : इस बीमारी में निर्जलीकरण को रोकना बहुत जरूरी है। इसके लिए रोगी को ORS या शर्करा- नमक का घोल समय-समय पर देना चाहिए। संभव होने पर 0.9% NaCl के घोल की सूई भी लगानी चाहिए।

रोकथाम (Prevention) : रोकथाम के लिए सबसे अधिक आवश्यक है कि लोग समय पर टीका लगा लें एवं कॉलरा फैले हुए स्थान पर नहीं जाएँ ।

आँत्र ज्वर (Typhoid)

आंत्र ज्वर में आंत्र अधिक सूज जाती है और उनमें जलन होती है। अतिसार भी प्राय: इस ज्वर में हो जाता है जो पोषक तत्त्वों के शोषण में बाधा उत्पन्न करता है। व्रजोत्पत्ति गम्भीर रूप धारण कर लेती है कि आंतों में रक्तस्राव होने लगता है और उसमें छेद भी हो सकते हैं। यह रोग स्वच्छता से दूर रहता है तथा जीवाणुओं के उपचार द्वारा इनकी गम्भीर अवस्था की अवधि को पहले से कम कर दिया गया है। ज्वर की स्थिति में पेशियों में से ऊतकों की 200-300 ग्राम प्रोटीन क्षय होती है। शरीर में संग्रहित ग्लाइकोजन भी शीघ्रतापूर्वक नष्ट होने लगता है, जल के सन्तुलन में भी अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है। साथ ही इस रोग में 3500 या इससे अधिक कैलोरी ऊर्जा तथा 100 ग्राम से अधिक प्रोटीन दी जानी आवश्यक है। आँतों की सूजन व जलन के कारण भोजन में जलन उत्पन्न करने वाले रेशों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उच्च प्रोटीनयुक्त तरल आहार देना लाभदायक होता है। कम रेशे वाले पदार्थ; जैसे-सूखे अनाज; डबलरोटी, पनीर, अण्डा, मुलायम गोश्त, मछली, आलू आदि देना चाहिए। नमक की पूर्ति हेतु नमकीन शोरवा देना चाहिए।

हेपेटाइटिस (Hepatitis) : हेपेटाइटिस यकृत में वाइरस के संक्रमण से होता है। अधिकांश लोगों को अधिक शराब पीने से भी यह बीमारी होती है। हेपेटाइटिस वाइरस कई प्रकार के होते हैं। इन्हें स्ट्रेन (strains) कहते हैं। वाइरस का नाम हेपेटाइटिस के प्रकार पर दिया गया है; जैसे हेपेटाइटिस A स्ट्रेन A से होता है, हेपेटाइटिस B स्ट्रेन B से होता है।

इसी तरह हेपेटाइटिस C, D, E, F एवं G स्ट्रेंस C, D, E, F एवं G से होता है। हेपेटाइटिस A दूषित भोजन या पानी द्वारा संक्रमित होता है। इस तरह हेपेटाइटिस B रुधिर, लार आदि से संक्रमण करता है।लक्षण (Symptoms) : (i) इस रोग से ग्रसित रोगी का यकृत बड़ा हो जाता है। (ii) हेपेटाइटिस का प्रधान लक्षण है त्वचा एवं आँखों के सफेद भाग का पीला हो जाना। इसे प्रचलित भाषा से हम जॉण्डिस (jaundice) भी कहते हैं। रुधिर में बिलिरुबीन (bilirubin) नामक पित्त कण की अधिक मात्रा के कारण रोगी के संपूर्ण शरीर एवं आँखों में पीलापन आ जाती है। (iii) भिन्न-भिन्न प्रकार के हेपेटाइटिस के भिन्न-भिन्न लक्षण होते हैं, लेकिन सिरदर्द, जॉण्डिस, सामान्य बुखार एवं गहरे रंग का मूत्र इन सभी के साधारण लक्षण हैं। नियंत्रण (Control)

(i) अधिक वसा (तेल, घी), अधिक प्रोटीन तथा अधिक मिर्च-मसालायुक्त भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए।

(ii) अति साधारण कार्बोहाइड्रेटयुक्त भोजन करना चाहिए।

(iii) कभी-कभी इंटरफेरॉन की सूई लगानी चाहिए। रोकथाम (Prevention)

(i) अति स्वच्छता एवं साधारण दैनिक जीवन व्यतीत करना चाहिए।

(ii) सर्वदा आयोनाइज्ड एवं पानी के वाइरस को UV-किरणों से मार कर पीना चाहिए । 

(iii) ईख का रस, मूली के साथ गुड़ का सेवन करना चाहिए।

(iv) परिवार के सभी सदस्यों को भोजन करने के पहले तथा भोजन करने के बाद में साबुन से हाथ धो लेना चाहिए।

(v) हेपेटाइटिस-B का टीका लगाकर रोग की रोकथाम करें। (vi) रुधिर की जाँच के पश्चात् ही उस रुधिर को चढ़ाना चाहिए। (vii) सूई देने में केवल प्रयोज्य सूई का ही व्यवहार करना चाहिए।

अतिसार (Diarrhoea)

मल का अधिक मात्रा में अधिक पतला तथा बार-बार निकलने की अवस्था को अतिसार कहते हैं। इसमें मल पदार्थ कोलोन वाले भाग से इतनी शीघ्रता से आगे बढ़ते हैं कि द्रव पदार्थों को अवशोषित होने का मौका नहीं मिल पाता जिससे पूर्णतः न बने हुए मल उत्सर्जित होते हैं। अतिसार अथवा प्रवाहिका भी एक पाचन सम्बन्धी रोग है जिसमें उचित देखभाल न होने पर रोग की तीव्रता से शरीर में जल की कमी हो जाती है और जिसके कारण कभी-कभी व्यक्ति की मृत्यु भी हो जाती है। अतिसार में बार-बार मल त्याग की क्रिया होती है और मल पतला, टूटाफूटा होता है। साथ ही पेट में भी दर्द होता है। अधिकांशतः यह रोग वर्षा व ग्रीष्म ऋतु में फैलता है।अतिसार के प्रकार

(1) तीव्र अतिसार (Acute Diarrhoea), 

(2) दीर्घकालिक अतिसार (Chronic Diarrhoea)

 (3) पर्यटन के प्रभाव से उत्पन्न अतिसार (Travello Diarrhoea),

 (4) तनाव / भय से उत्पन्न अतिसार (Nervous Diarrhoea)।

तीव्र अतिसर (Acute Diarrhoea)- इसके होने के प्रमुख कारण हैं

1. गन्दे, अधिक मसालेयुक्त, बासी तथा सड़े भोज्य पदार्थ खाने से।

2. भोज्य पदार्थों में पाये जाने वाले रासायनिक टॉक्सिन; जैसे- आर्सेनिक, सीसा, पारा आदि। 3. कीटाणुओं से भोज्य विषाक्तता उत्पन्न होने से विशेषकर साल्मेनेला (Salmonela) अथवा स्फाइलोकोकल (Staphylococal) भोज्य विषाक्तता से।

4. कीटाणुओं के संक्रमण द्वारा।

5. भोज्य पदार्थों की एलर्जी हो जाने पर। 

6. क्विीनीडीन, नियोमाइसीन जैसी दवाइयों से। 

7. कुपोषण के कारण।

8. अन्य रोग के लक्षण के रूप में।

9. मनोवैज्ञानिक कारक; जैसे-अधिक संवेगात्मक अस्थिरता, चिन्ता, भय आदि अतिसार उत्पन्न करते हैं। तीव्र अतिसार एकदम आरम्भ होता है जिसमें पेट दर्द के साथ पतला मल निष्कासित होता है, साथ ही पेट में मरोड़, बुखार, वमन के साथ शरीर क्षीण हो जाता है। कमजोरी बढ़ती जाती है। यद्यपि यह अवस्था कम समय तक रहती है (24-48 घण्टे) अतः शरीर में जल की मात्रा बनाये रखना ही उपचार का मुख्य उद्देश्य रहता है।

दीर्घकालिक अतिसार (Chronic Diarrhoea) - अब दो सप्ताह से अधिक अवधि तक उपचार के बाद अतिसार रहता है तब इसे दीर्घकालिक अतिसार कहते हैं। पानी की अधिक मात्रा मल के साथ शरीर से निकल जाने से शरीर में पोषक तत्त्वों का अवशोषण प्रभावित होता है जिससे पोषक तत्त्वों की कमी होने लगती है। इसके प्रमुख कारण हैं

1. तीव्र अतिसार के ठीक होने पर अधिक मसालेयुक्त चटपटे तथा काफी समय तक रखे भोज्य पदार्थों को खाने में प्रयोग करने से।

2. अवशोषण क्षमता में कोई विकार उत्पन्न हो जाने से।

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