प्राकृतिक या मानवीय क्रियाओं के फलस्वरूप जल की गुणवत्ता में हुए निम्नीकरण को जल-प्रदूषण (Water pollution) कहा जाता है, जो आहार, मानव तथा अन्य जीवों के स्वास्थ्य, कृषि, मछली पालन या मनोरंजन के लिए अनुपयुक्त या खतरनाक होते हैं।
भारत में जनसंख्या की वृद्धि तथा औद्योगिक विस्तार के कारण जल के अविवेकपूर्ण उपयोग से नदियों, नहरों, झीलों तथा तालाबों में जल की गुणवत्ता में बहुत अधिक निम्नीकरण हुआ है।
इनमें निलंबित कण, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ अधिक मात्रा में समाहित हो गये हैं, जल में स्वतः शुद्धिकरण की क्षमता नहीं रह गयी है और यह उपयोग के योग्य नहीं रह गया है।
जल प्रदूषण प्राकृतिक (अपरदन, भूस्खलन, पेड़-पौधे और मृत पशु के सड़ने-गलने) और मानवीय (कृषि, उद्योग और सांस्कृतिक गतिविधि) स्रोतों से होता है। इनमें उद्योग सबसे बड़ा प्रदूषक है।
उद्योगों के अवांछनीय उत्पाद जैसे औद्योगिक कचरा, प्रदूषित अपशिष्ट जल, जहरीली गैसें, रासायनिक अवशेष इत्यादि बहते जल या झीलों में बहा दिये जाते हैं, जिससे जल प्रदूषित हो जाता है।
चमड़ा उद्योग, कागज और लुग्दी उद्योग, वस्त्र तथा रसायन उद्योग सर्वाधिक जल-प्रदूषक हैं। कानपुर और मोकामा का चमड़ा उद्योग गंगा को और दिल्ली का विविध औद्योगिक कचरा यमुना को प्रदूषित कर रहा है।
इसी प्रकार कृषि में अकार्बनिक उर्वरक, कीटनाशक इत्यादि के उपयोग से भी जल-प्रदूषण होता है। ये प्रदूषक जल के साथ भू-जल तक पहुँच जाते हैं और धरातलीय जल के साथ-साथ भूमिगत जल को भी प्रदूषित कर देते हैं।
घरेलू कचरा और अपशिष्ट तथा नदी में लाशों के विसर्जन से भी जल-प्रदूषण होता है। कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना तथा कोलकाता के घरेलू कचरे गंगा और हुगली को तथा दिल्ली का घरेलू कचरा यमुना को प्रदूषित कर रहे हैं।
दिल्ली के निकट यमुना में 17 खुले नाले मल-जल डालते हैं। इसके अतिरिक्त तीर्थ यात्राओं, धार्मिक मेलों, पर्यटन इत्यादि सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण भी जल प्रदूषित होता है।
जल प्रदूषण से विभिन्न प्रकार की जल-जनित बीमारियाँ, जैसे— दस्त, आँतों की कृमि, हेपेटाइटिस इत्यादि होती हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) के एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग एक-चौथाई संचारी बीमारी जल-जनित होती है।