विद्यालय का योगदान - व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण भाग विद्यालय तथा महाविद्यालय में व्यतीत होता है। उसके व्यक्तित्व के विकास पर शैक्षिक प्रक्रियाओं का महत्वपूर्ण प्रभाव होता है। शिक्षा विकास की प्रक्रिया है जिसमें शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा नैतिक विकास सम्मिलित है। अध्यापकों तथा प्राचार्य द्वारा विकास हेतु समुचित पर्यावरण उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है। रायन ने शिक्षक की अधोलिखित भूमिकाओं का उल्लेख किया है
(1) शिक्षक को प्रजातान्त्रिक शिक्षण विधियों तथा प्रविधियों; जैसे- प्रश्नोत्तर विधि, वाद-विवाद, योजना विधि का उपयोग करना चाहिए।
(2) शिक्षक को कक्षा शिक्षण में भागीदारी के लिये प्रोत्साहित तथा अभिप्रेरित करना चाहिए।
(3) शिक्षक को शिक्षण उद्देश्यों तथा उसके व्यावहारिक रूप का पूर्ण बोध तथा कौशल होना चाहिए।
(4) शिक्षक को शिक्षण को अन्तः क्रिया के रूप में सम्पादित करना चाहिए।
शिक्षा के मुख्य तीन उद्देश्य - ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक हैं।
बहुधा शिक्षा की प्रक्रिया में ज्ञानात्मक पक्ष के विकास को ही विशेष महत्व दिया जाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक तथा नैतिक शिक्षा का सम्बन्ध भावात्मक पक्ष से होता है। इसके अन्तर्गत आचरण में परम्पराओं, अभिवृत्तियों, अभिरुचियों तथा मूल्यों को सम्मिलित किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाविदों ने व्यक्तित्व विकास के चार निर्धारकों का उल्लेख किया।
1.मानसिक विकास - बुद्धि मानसिक क्षमताएं सर्जनात्मक प्रवंता तथा परिलब्धियाँ
2. सामाजिक विकास - विचार, विश्वास, अभिवृत्तियाँ, अभिरुचियाँ, आचरण तथा मूल्य।
3. शारीरिक विकास - ऊँचाई, रंग, मुखाकृति, शारीरिक संरचना आदि ।
4. भावात्मक विकास - आवश्यकतायें, आकांक्षा स्तर, स्वभाव, संवेदनायें, अभिप्रेरणा, आदि ।