पर्यावरण का यह वह भाग है जिसकी बदौलत धरती पर जीवन सुलभ हो सकता है। भौतिक पर्यावरण का क्षेत्रीय स्वरूप विविधता का प्रतीक है। इसी विविधता के कारण भिन्न-भिन्न भूखण्डों पर विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु पाये जाते हैं। प्रकृति में निरंतर परिवर्तनशीलता के बावजूद वह पूरी कोशिश करती है कि जीवों के जीवन में कोई कठिनाई न हो। धरती की जीवन्तता हर हाल में बनी रहती रहे।
यही प्रकृति का महान उद्देश्य है और इसी उद्देश्य के कारण प्रकृति ने स्वतः कुछ नियम परिनियम अपने लिए भी निर्धारित कर रखे हैं। इन्हीं नियमों के क्रम में मानव के क्रियाकलापों से कहीं जरा भी बाधा आती है तो संतुलन बिगड़ता है और उसका सीधा असर मनुष्य के जीवन पर पड़ता है। इस 'असंतुलन' के बारे में हम 'प्रदूषण' के संदर्भ में चर्चा करेंगे।
पर्यावरण के भौतिक तत्त्वों में सूर्य सबसे पहले आता है। सूर्य की शक्ति, विविध रूपों में जीवन का मूल आधार है। सूर्य भौतिक पर्यावरण का ऐसा तत्त्व है जो प्रकृति के समस्त सजीव अथवा निर्जीव तत्त्वों को अनेक ढंग से प्रभावित करता है। मौसम, मिट्टी, जल, वनस्पति, जीव प्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित होते हैं। कहा जा सकता है कि पृथ्वी -तल और सौर ऊर्जा पर्यावरणीय विविधता के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी हैं।
(अ) ताप (Temperature) - भौतिक पर्यावरण में ताप एक ऐसा तत्त्व है जो भौतिक तत्त्वों को तो प्रभावित करता ही है, जैव तत्त्वों के विकास का गुरुत्तर दायित्व भी इसी पर निर्भर करता है। पारिभाषिक शब्दावली में वायुमण्डल में मौजूद ऊष्मा (गर्मी) तापमान कहलाती है।
प्रकृति में ऊष्मा की प्राप्ति के प्रमुख रूप से निम्नलिखित स्रोत हैं -
(a) सूर्य (Sun) सूर्य वस्तुतः पृथ्वी के समस्त जैविक अंगों का आधार है। इससे मिलने वाली ऊर्जा और प्रकाश के बिना धरती पर जीवन की परिकल्पना तक नहीं की जा सकती है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सूर्य के धरातल पर एक लाख फारेनहाइट से भी ज्यादा तापमान है। सूर्य की प्रकाश तरंगों के लिए इसी तापमान का कुछ हिस्सा धरती तक धूप के रूप में पहुंच पाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि सूर्य की एक किरण जितना तापमान लेकर अपनी यात्रा शुरू करती है, धरती पर उसका ½ अरबवाँ हिस्सा ही पहुँच पाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि किरणों की लम्बी यात्रा के दौरान वायुमण्डल के विभिन्न तत्वों के कारण अधिकांश ताप सस्ते में ही रह जाता है।
कहा जा सकता है कि किरणों से ऊष्मा का एक बड़ा हिस्सा वायुमण्डलीय तत्त्वों द्वारा सोख लिये जाने के कारण धरती और वायुमण्डल में बराबर गर्मी बनी रहती है। स्पष्ट है, इस गर्मी की मौजूदगी से धरती पर जीवन संचार सम्भव हो पाता है।
(b) संचलन (Conduction) - प्रकृति के विभिन्न पिण्डों से वायु टकराने के फलस्वरूप ऊष्मा पैदा होती है। इस टकराहट को संचलन कहा जाता है। गर्म धरातल या गर्म वायु पुंज से स्पर्श के बाद वायुमण्डल गर्म हो जाता है।
(c) विकिरण (Radiation)-धरातल द्वारा शोषित दीर्घ तरंगों को पुनः वायुमण्डल में लौटा दिया जाता है, उससे वायुमण्डल गरम हो जाता है। इस क्रिया से उत्पन्न ताप का जीवन की विभिन्न क्रियाओं पर काफी असर पड़ता है।
उपर्युक्त तीनों स्रोतों से प्राप्त ऊष्मा के अतिरिक्त संवहन तरंगों तथा वायुपुंजों के आपस में टकराने से भी ऊष्मा प्राप्त होती है।
प्रकृति की हर एक इकाई पर तापमान का परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप से विशेष प्रभाव पड़ता है। पेड़-पौधों और जंतुओं की विविध शारीरिक क्रियाएँ तापमान से ही संचालित होती हैं। वायुमण्डलीय तापमान का क्षैतिज, लम्बवत् और कांतिक वितरण पृथ्वी पर समान न होने से ही पर्यावरण में विविधता भी आ जाती है। तापमान के आधार पर भूगोलवेत्ता धरती को उष्ण, समशीतोष्ण और शीत कटिबंधों में बाँटते हैं। यहाँ तक कि इन भूखण्डों पर विकसित विविध गुणों वाली वनस्पतियों के नाम भी ताप के आधार पर ही रखे जाते हैं।
(ब) मृदा (Soil) - पर्यावरण का आधारभूत तत्त्व मिट्टी (मृदा) होती है। पृथ्वी की सतह पर अनेक प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं। धरती की बनावट को देखें तो पता चलता है कि कहीं पहाड़ हैं तो कहीं पठार हैं। कहीं दूर तक फैला समतल मैदान है तो कहीं ढाल भूमि | भूमि की विस्तृत व्याख्या एवं इसकी बनावट का अध्ययन भूगोल विषय के अंतर्गत किया जाता है।
मिट्टी वह आधार तत्त्व है जो पर्यावरण को प्रभावित करने वाले भौतिक तत्वों में प्रमुख स्थान रखती है। धरती को ढकने वाली यही वह सतह है जिससे जीवन की उत्पत्ति और जिस पर जीवन की समस्त क्रियायें सम्पन्न होती हैं। मिट्टी के बिना वनस्पति एवं जंतु जगत के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं का जा सकती। मनुष्य का रहना, खाना, कार्य करना और विकास करना सब कुछ मिट्टी के सहारे ही होता है।
प्रमुख बिन्दु :
1. समुद्र तल से 600 मीटर अथवा 2000 फीट तक की ऊँचाई वाली भूमि मैदान (Plains) कहलाती है।
2. समुद्र तल से 600 से 2000 मीटर यानी 2000 फीट से 6000 फीट तक की ऊँचाई वाली भूमि पठार (Plateau) कहलाती है।
3. समुद्र तल से 600 फीट से ऊँचे भाग पर्वत (Mountains) होते हैं।
मैदान भी दो प्रकार के होते हैं -
(i) समतल मैदान (Smooth Plains) - इसके ढाल का कोण 1° से कम होता है तथा स्थानीय ऊँचाई का अंतर अतिसूक्ष्म होता है।
(ii) उर्मिल मैदान (Rolling Plains) - यह ऊँचा - नीचा होता है । इसका ढाल 1° से 4° के मध्य होता है। स्थानीय ऊँचाई में लगभग सौ फीट का अंतर हो सकता है।
मिट्टियाँ-मिट्टी को पर्यावरण को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक कह सकते हैं। मिट्टी के बजाय ‘मिट्टियाँ’ शब्द का प्रयोग इसलिए करना पड़ रहा है, क्योंकि
भू-वैज्ञानिकों ने मिट्टी को वर्गीकृत कर 4 वर्गों में बाँटा है -
(क) अवशिष्ट मिट्टी
(ख) जलोढ़ मिट्टी
(ग) हिमोढ़ मिट्टी
(घ) वायुढ़ मिट्टी
भूगोल के विद्यार्थी मिट्टियों को बाकायदा एक विषय के रूप में पढ़ते हैं। मिट्टियों का ठीक से अध्ययन करने के लिए भू-विज्ञान की 'मृदा विज्ञान' नामक अति विकसित शाखा भी है, जिसमें विभिन्न प्रकार की मिट्टियों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है ।
वस्तुतः मनुष्य का जीवन वृत्त मिट्टी पर ही आधारित है। रहने, घूमने से लेकर खाने-पीने तक समिधाएँ मिट्टी से ही प्राप्त होती हैं। कृषि के समस्त उत्पादन मिट्टियों पर ही निर्भर हैं। मिट्टियों का चयन, उनका संरक्षण एवं उपभोग मनुष्य एवं मिट्टी के सामंजस्य को सफल अथवा असफल बनाता है।
(स) जल (Water) - जल प्रकृति प्रदत्त एक ऐसी विरासत है जिसकी बदौलत ब्रह्माण्ड में जीवन सम्भव हो पाया है। जीवधारियों की कोशिकाओं में पाया जाने वाला 'जीवद्रव्य' न होता यदि धरती पर जल नहीं होता। जाहिर है जल हमारे पर्यावरण का वह अति महत्वपूर्ण तत्त्व है जो 'जीवन शक्ति' को जीवों के अंदर प्रवाहित करता रहता है, इसलिए मुहावरा-सा चल गया है 'जल ही जीवन' है।
वस्तुतः हाइड्रोजन नामक गैस के दो अणुओं तथा ऑक्सीजन के एक अणु की क्रिया मे यह अवयव सर्वत्र संरचनात्मक ढांचे में एक जैसा ही पाया जाता है। पर्यावरणीय विविधता का जलप कोई असर नहीं होता। धरती पर मौजूद हर एक जीव तत्त्व का आधारभूत तत्व पानी है। अनुष्य क संरचना में भी 65 फीसदी पानी ही है। संरचनात्मकता को पलभर के लिए त्याग भी है तो भी जीवधारियों की जीवन क्रिया के महत्वपूर्ण पहलू जल से ही जुड़े हुए हैं।
वैज्ञानिकों को मत है कि वृक्षों की संरचना में भी 40 फीसदी जल भाग होता है। पड़ी और वनस्पतियों की हरियाली जल के कारण है। फल, फूल, सब्जी से लेकर अनाज तक सभी का उत्पादन पानी पर ही निर्भर है। मनुष्य की समस्त दैनिक क्रियाएँ जल पर ही आधारित होती है। खान, पीन नहाने, धोने से लेकर खेतों की सिंचाई, बिजली का उत्पादन और बड़े-बड़े उद्योगों की जल के दिया कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जल के गुण: शुद्ध जल रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, हानिकारक रसायन और जीवाणुओं मुक्त तथा पारदर्शी होता है। इसका भार बहुत कम होता है। आदर्श अवस्था में जल का घनत्व 4°C पर एक ग्राम प्रतिघन सेंटीमीटर होता है। तापमान घटने पर इनका घनत्व भी कम हो जाता है। शुद्ध जल 0°C पर जमकर बर्फ बन जाता है, जबकि इसका क्वथनांक 100°C होता है।
रूप: प्रकृति में जल तीन रूपों में मिलता है
(i) ठोस - बर्फ
(ii) द्रव - पानी
(iii) गैस-वाष्प
उपलब्धता - धरती का तीन चौथाई भाग जलस्रोतों से ही लबालब है। भूमण्डल पर जल का अपार भण्डार है। यह भण्डार इतना विशालकाय है कि वायुमण्डल और स्थलमण्डल के बीच एक आवरण की तरह पृथ्वी को चारों तरफ से घेरे हुए है। वैज्ञानिकों के अनुपात के मुताबिक यह पूरी धरती का 7/10 भाग है। इसका आयतन लगभग एक अरब 46 करोड़ घन किलोमीटर है। पानी के इस पूर आवरण को हम 'जलमण्डल' कहते हैं।
(द) वायु या हवा (Air) - वातावरण में उपस्थित गैसों का मिश्रित समूह जो हमें अदृश्य रूप में बराबर घेरे रहता है, सामूहिक रूप से उसी मिश्रण को वायु या हवा कहते हैं। धरती से लगभग 250 किलोमीटर की ऊँचाई तक यह मिश्रण विद्यमान है। इसमें सर्वाधिक 78 प्रतिशत की मात्रा सिर्फ नाइट्रोजन गैस की होती है। इसके बाद प्राणवायु यानी ऑक्सीजन 20.95 प्रतिशत पायी जाती है। जाहिर है जंतु जगत के जीवन के लिए पर्यावरण का यह हिस्सा कितना महत्त्वपूर्ण होगा, क्योंकि एक-एक साँस के लिए हमें इसी वायु पर निर्भर रहना है। वायु के शेष भाग में ऑर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड, नीऑन, हीलियम, क्रिप्टोन, जीनॉन, हाइड्रोजन, ओजोन तथा धूल इत्यादि के कण होते हैं।
वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार सामान्य स्थिति में एक मनुष्य 22000 बार साँस लेकर 16 किलोग्राम प्राणवायु यानी ऑक्सीजन की खपत करता है। कल्पना भी नहीं की जा सकती कि यदि ऑक्सीजन की मात्रा वायु में कम या असंतुलित हो जाए तो हम जी सकने की स्थिति में होंगे।
(य) ऊर्जा (Energy) - 'किसी भी कार्य को सम्पादित करने की क्षमता कार्य करने वाले की ऊर्जा होती है। पर्यावरण में यह ऊर्जा विभिन्न रूपों में विद्यमान है। 'सौर ऊर्जा' हमें सूर्य से प्राप्त होती है। आण्विक ऊर्जा प्रकृति में पाए जाने वाले यूरेनियम जैसे तत्वों के विखण्डन से मिलती है। बिजली जैसी महत्त्वपूर्ण (ऊर्जा का ही एक रूप) हमें पानी तथा कोयले से प्राप्त होती है। उल्लेखनीय है कि पानी और कोयला दोनों प्रकृति की देन हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाने, पीने, साँस लेने से लेकर बड़े-बड़े कल-कारखानों को चलाने और जीवन की जटिल क्रियाएँ निपटाने में हम अथाह ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं। ऊर्जा चाहे जिस रूप में भी प्रयोग की जाती है, लेते हम प्रकृति से ही हैं। अतः हमारे भौतिक पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग ऊर्जा भी है।