जीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक इसका मूल्य निश्चित नहीं किया जा सकता, अर्थात् हिन्दी भाषा का मूल्य अपरिमित है। मानव के लिए जिस प्रकार टहलना एवं साँस लेना अति आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार बोलना भी । बालक क्रमिक विकास के माध्यम से लड़खड़ा कर चलना सीख जाता है और फिर उसी तरह तुतला - तुतला कर बोलना भी सीख जाता है ।
बोलकर ही अभिव्यक्त किया जा सकता है। भाषा ही मानव को समस्त में प्रतिष्ठित करती है और भाषा ही हमें इस योग्य बनाती है कि हम अपने जीवन के सुख-दुखः, हर्ष-विमर्श, भय-क्रोध आदि भावों को दूसरे के समक्ष प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकते हैं। भाषा केवल हमारे विचारों की ही संवाहिका नहीं है, प्रत्युत वह हमारी प्राची सभ्यता, संस्कृति, कला-कौशल की परिचायिका भी है। अनेकानेक विषयों पर लिखित पुस्तकों का प्रकाशन भाषा के द्वारा ही सम्भव है।
इस दृष्टिकोण को दृष्टिगत रखकर यह कहा जा सकता है कि भाषा के उच्चरित रूप की तुलना में उसका लिखित रूप अधिक महत्वपूर्ण है। वाणी की अपेक्षा लेखनी अधिक महत्व रखती है। लेखनबद्ध अक्षरों का अभाव रहने पर इस बात की सम्भावना की जा सकती है कि समूचा विश्व अज्ञानतावश अतृप्त रहता है।
समग्रतः यही कहा जा सकता है कि भाषा के पठन-पाठन में हमारा मूल प्रयोजन अपने मनोविचारों को व्यक्त करने में सक्षम होना, दूसरों द्वारा अभिव्यक्त की गयी बातों को समझ सकने योग्य होता है। हमारी अभिव्यक्ति ओज, माधुर्य और प्रसादिकता से समन्वित होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो इस बात की पूरी - पूरी सम्भावना रहती है कि श्रोता पर उसका अभिलाक्षित प्रभाव नहीं पड़ता है।