कोणार्क
वस्तुकला की उड़ीसा शैली भारतीय वस्तुकला के क्षेत्र में अपना अलग स्थान रखती है। इस शैली में धार्मिक भावना से प्रेरित होकर कलाकारों ने भगवान के विभिन रूपों या स्वरूपों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण कीं। सबसे बड़ी उपलब्धि कोणार्क का सूर्य मंदिर है। कदाचित यह भारत का सूर्य भगवान का एक मात्र मंदिर है जिसने भारत ही नहीं विभिन्न देशों के लोगों की ओर ध्यान आकर्षित किया । कोणार्क शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-"कोण" और "अर्क"। अर्कका अर्थ सूर्य होता है। इस प्रकार कोणार्क का अर्थ कोण पर सूर्य का मन्दिर हुआ। संभवत: जिस स्थान पर यह मंदिर बना है वहाँ सूर्य की किरणें दक्षिणाक हो जाती हैं। इस कारण ही इस स्थान का नाम कोणार्क पड़ा। परन्तु भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की नहीं है। कर्क रेखा इस स्थान के उत्तरी भाग से गुजरती है और यह स्थान कर्क रेखा पर स्थित भी नहीं है। यह धुरी से 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
कोणार्क का सूर्य मंदिर 13वीं शताब्दी मे नरसिंह देव प्रथम के शासनकाल में निर्मित हुआ था। यह मंदिर अब नष्ट हो चुका है और उसके भग्नावशेष ही प्राप्त हुए हैं। वर्षा के कारण काला होते जाने से लोग इसे"कालापगोड़ा" कहते हैं । कोणार्क मंदिर सूर्य रथ के आकार को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। मंदिर में सूर्य की भव्य मूर्ति और उसके रथ को सात घोड़े खींचते हुए चित्रित किये गये हैं। मंदिर ऊँचे धरातल पर खड़ा है जिसमें 10 फीट ऊँचे अलंकृत 12 पहिये दिखलाई पड़ते हैं। पहिये का धुरा 11 और इसमें 16 डंडे लगे हैं। यहाँ उड़ीसा शैली के चारों रूप देवल, जगमोहन नट और भोग के आकार बने हुए. थे। परन्तु वर्तमान युग में वह सम्बद्ध ही दिखलाई पड़ते हैं। सम्पूर्ण मंदिर 865 फीट लम्बा और 540 फीट चौड़े प्रांगण में बना हुआ है। मन्दिर में पूरब की दिशा से प्रवेश द्वार है। देवल और जगमोहन ऊँचे चबूतरे पर बने हैं। मंदिर का पूरा आकार अलंकृत है यहाँ तक कि पहिये भी प्रचुर मात्रा में अलंकृत हैं। इतना गंभीर उलंकरण उस युग में आश्चर्य का विषय है। चारों दिशाओं में केन्द्रीय रथ के अनेक प्रक्षेप निर्मित हैं। मीनार भग्न हो चुका है और इस कारण इनकी गरिमा नष्ट हो गयी है। जगमोहन के ऊपरी भाग में पिरामिड है। छत तीन आकार सहित बनी हुई है। गुम्बज के साथ विशाल आमलक शिला परिलक्षित होती है। मीनार से लगे हुए पत्थर जमीन पर गिर पड़े हैं। मंदिर के मूल रूप को देखकर यह निश्चित हो जाता है कि अवश्य ही इस मंदिर की योजना किसी प्रतिभावान कारीगर ने बनाई होगी और उसके वस्तुकला में अनुभव का पूर्ण उपयोग किया होगा।
मंदिर के प्रत्येक आकार में सामंजस्य और मेल है। सब एक साथ बंधे हुए हैं। ऐसा विश्वास है कि धरातल से देवल की मीनार 225 फीट ऊँची रही होगी। मंदिर की बुनियाद में दो छोटे नंदिरनुमा आकार हैं। गर्भगृह में मानव आकार के काला पत्थर की सूर्य प्रतिभा प्रतिष्ठित है। इसके विशाल वाह्य भाग में मानव और पशुओं की आकृतियाँ बनी हुई है और कलाकारों ने लोक कथाओं का खुलकर प्रयोग किया था।कोणार्क के सूर्य मंदिर के भग्नावशेष ही प्राप्त हुए हैं परन्तु इसमें किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं कि कलाकारों ने सूर्य के घोड़ों की प्रतिमा अत्यन्त सुन्दरता के साथ उत्कीर्ण की होगी। यह मान्यता है कि सूर्य जंब उदयाचल से अपने रथ पर ऊपर आता है तो उसके रथ को 7 घोड़े खींचते हैं। कोणार्क के मंदिर में इसी परिकल्पना को वास्तु का रूप प्रदान किया गया है। कोणार्क के सूर्य मंदिर के संबंध में एक विद्वान ने ठीक ही लिखा है, "वह मंदिर कालचक्र फलस्वरूप नष्ट हो चुका है परन्तु जिस युग में वह मंदिर रहा होगा उस युग में उसे देखते ही सूर्य के उदय का चित्र दिखने वालों के सम्मुख स्पष्ट रूप से आ जाता होगा। " मंदिर के अन्दर की दीवारों पर उड़ीसा शैली के अन्य मंदिरों की भाँति आकृतियाँ नहीं हैं परन्तु उसके बाह्य भाग में मानव आकृतियाँ अत्यन्त सजीव रूप से चित्रित की गयी थीं, ऐसा उसके भग्नावशेषों को देखने से प्रतीत होता है।